यह 1927 में प्रकाशित एक तमिल लेख का अंश है, जिसका इशारा रुकय्या के उपन्यास सुल्ताना का सपना की ओर है। अचरज की बात नहीं कि इस उपन्यास को पढ़ कर आज भी पुरुषवादी मानसिकता वाले लोग महिलाओं को उपन्यास पढ़ने से मना करें। और यही इसकी ताकत है। इसीलिए आज भी यह उपन्यास उतना ही उपयोगी और मौजूँ है।
आज रुकय्या और सुल्ताना के सपने को साकार करने की पूर्वशर्तें किसी भी दौर से ज्यादा अनुकूल हैं। इस सपने को साकार करने में लगे लोगों को, महिला मुक्ति के संघर्ष में शामिल लोगों को, अपने अतीत के धरोहर को अपने लोगों तक ले जाना होगा। हमारा यह विनम्र प्रयास इस काम में सहायक होगा, इसी उम्मीद के साथ।
–आशु वर्मा
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रुकैया सखावत हुसैन |
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