रुकय्या सखावत हुसैन (1880–1932) की भविष्यवादी, स्वप्नदर्शी, स्त्रीपक्षीय रचना सुल्ताना का सपना मेरे मन को काफी अरसे से मोहित करती रही है। इतिहास की विद्यार्थी और शिक्षिका होने के चलते इस युगान्तरकारी रचना से मेरा पुराना परिचय रहा है। पाठ्यक्रम में शामिल ‘‘उपन्यास और समाज” पाठ पढ़ाते हुए रुकय्या और सुल्ताना को और करीब से जानने का मौका मिला।
हमारे महाद्वीप में नारी मुक्ति की मशाल जलाने वाली रुकय्या को याद करने के लिये बांग्लादेश में 9 दिसम्बर को रुकय्या दिवस मनाया जाता है, और भारत में? 1932 में तो बांग्लादेश ही क्या, पाकिस्तान भी नहीं था। रुकय्या तो अविभाजित भारत की धरोहर है न। फिर यह उपेक्षा क्यों? क्या इसके पीछे सिर्फ लैंगिक पूर्वाग्रह है या उससे आगे भी कुछ मजबूरियाँ हैं?
अपने छोटे से जीवन में रुकय्या सखावत हुसैन ने पद्मराग जैसे उपन्यास तथा मोतीचूर और अबरोधबासिनी जैसे लेख–संग्रह सहित कई विचारोत्तेजक रचनाएँ लिखीं। इन सब के साथ–साथ उन्होंने अपने सपनों को सच्चाई में बदलने तथा महिलाओं में शिक्षा और चेतना जगाने के लिये व्यावहारिक काम भी किये।
लड़कियों के लिये शिक्षा रुकय्या के लिये आजादी की पहली शर्त थी और इसी की दिशा में उन्होंने ठोस रूप से काम शुरू किया। बिहार के भागलपुर में उन्होंने 1909 में लड़कियों के लिये एक स्कूल खोला, जिसमें उनके पति ने भी भरपूर मदद की। पति की मृत्यु के बाद वे कोलकाता चली गयीं और वहाँ भी 1911 में सखावत मेमोरियल गर्ल्स स्कूल की शुरुआत की, जिसे मृत्युपर्यन्त संचालित करती रही।