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पहला अध्यापक

50 /-  INR
1 रिव्यूज़
उपलब्धता: स्टॉक में है
कैटेगरी: विश्व साहित्य
भाषा: हिन्दी
आईएसबीएन: 81-87772-21-23
पृष्ठ: 105
अनुवादक: भीष्म साहनी
कुल बिक्री: 3221
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इस उपन्यास में जिन घटनाओं का जिक्र किया गया है, वे इस शताब्दी के तीसरे दशक में मध्य एशिया में सोवियत सत्ता के स्थापनाकाल में घटी थी। एक झलक––

“अरे आप दूइशेन को नहीं जानते। बड़े कानून–कायदे का आदमी है। अपना काम पूरा करने के बाद ही वह किसी दूसरी चीज में दिलचस्पी लेता है,” दूसरा बोला।

“साथियो मुमकिन है कि आप में से कुछ को याद हो, एक जमाना था कि हम दूइशेन के स्कूल में पढ़ा करते थे और वह खुद भी वर्णमाला के सभी अक्षर शायद ही जानता हो,” कहते हुए उसने पलकें मूँदकर सिर हिलाया। उसके चेहरे पर विस्मय और व्यंग्य की झलक थी।

फोटो नाम और परिचय अन्य पुस्तकें
चिंगिज आइत्मातोव चिंगिज आइत्मातोव
  • http://svnlibrary.blogspot.com/2017/01/blog-post_31.html

    एक सच्चे कम्युनिस्ट की कहानी।
    पहला अध्यापक- चिंगीज आइत्मातोव
    --------------------------------------
    सरकार के खिलाफ नारेबाजी करना...
    हङताल करना...
    लाल झण्डा लहराना...
    क्रांतिकारी भाषण देना...
    क्या यही निशानी है एक कम्युनिस्ट की?
    पर इनसे अलग हटकर भी एक कम्युनिस्ट है, सच्चा कम्युनिस्ट, अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठावान वह है- दूइशेन।
    चिंगीज आइत्मातोव के उपन्यास 'पहला अध्यापक' का नायक है दूइशेन।
    एक सच्चा कम्युनिस्ट है - दूइशेन।
    लेलिन का अनुयायी है- दूइशेन।
    "अरे आप दूइशेन को नहीं जानते । बङा कानून-कायदे का आदमी है। अपना काम पूरा करने के बाद ही वह किसी दूसरी चीज में दिलचस्पी लेता है।"
    इस लघु उपन्यास की कहानी कई स्तरों से होकर गुजरती है।
    एक है दूइशेन, जिसके बारे में यह कहानी है। दूसरी है आल्तीनाई सुलैमानोव्ना, जो कहानी को कहती है। तीसरा वह शख्स जिसे आल्तीनाई यह कहानी बताती है, और चौथा है पाठक जो इस मार्मिक कहानी में डूब जाता है।
    कहानी का आरम्भ होता है रूस के एक छोटे से गाँव कुरकुरेव से।
    सन् 1923 ईस्वी।
    "हमारी बस्ती में एक अपरिचित सा युवक आया, जिसने फौजियों का ग्रेटकोट पहन रखा था"
    यह युवक था दूइशेन जो इस गाँव के लोगों को शिक्षित करना चाहता था, ताकि लोग शोषण के विरुद्ध खङे हो सके, ताकि लोग सोवियत संघ के विकास में सहयोगी बन सकें, ताकि लोग अच्छा जीवन जी सकें।
    पर लोगों को शिक्षा से कोई मतलब न था।
    सातिमकूल ने आँखें सिकोङते हुए कहा, -"बताओ तो, हमें इसकी, इस स्कूल की जरूरत ही क्या है?"
    "हम किसान हैं, मेहनत करके जिंदगी बसर करते हैं, हमारी कुदाल हमें रोटी देती है।हमारे बच्चे भी इसी तरह जिंदगी बसर करेंगे। उन्हें पढने-लिखने की कोई जरूरत नहीं ।"
    लेकिन दुइशेन के अथह प्रयासों से स्कूल बना, जिसे लोग 'दूइशेन का स्कूल' कहने लगे। स्कूल के बच्चों में एक अथान बच्ची है आल्तीनाई । अपने चाचा-चाची के पास रहती है, और चाची के दुर्व्यवहार को सहन करती है।
    इस कम्युनिस्ट को दुख है तो बस इस बात की वह कभी लेनिन से मिल नह सका।
    "मास्टर जी, आपने कभी लेनिन से हाथ मिलाया था?"
    "नहीं बच्चों, मैंने लेनिन को कभी नहीं देखा।"- और अपराधियों की भांति ठण्डी साँस भरी।
    एक तरफ है अशिक्षित लोग और उनकी कुप्रथाएं। इसी अशिक्षा के चलते चाची आल्तीनाई का सौदा किसे खानाबदोश व्यक्ति के हाथ कर देती है।
    जब दूइशेन ने विरोध किया तो
    "उसकी आवाज चीख सी बनकर टूट गयी। उन्होंने दूइशेन का बाजू तोङ दिया। हाथ को छाती के साथ लगाये, दूइशेन पीछे हट गया, पर वे मतवाले, सिरफिरे साँङों की भाँति दहाङते हुए नि:सहाय दूइशेन पर टूट पङे।"
    "मारो, मारो, सिर पर मारो, जान से मार डालो!"
    लेकिन दूइशेन के होते यह कहां संभव। वह तो आल्तीनाई के उज्ज्वल भविष्य के सपने देखता है।
    लेकिन दूइशेन खानाबदोश व्यक्ति के चुगल से बचाकर आल्तीनाई को मास्को के विद्यालय में शिक्षार्थ भेज देता है।
    वही आल्तीनाई शिक्षा प्राप्त कर एक विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र पढाती है, विभागाध्यक्ष है। जिसका नाम आज सम्मान से लिया जाता है।
    तक ही वह शोषित बन कर जीता है। ऐसा ही एक पात्र है जो परिस्थितियाँ बदलते ही शोषक के खिलाफ खङा हो जाता है।
    "चालीस साल तक शायद उसने कभी सिर नहीं उठाया होगा। अब, जैसे कि बाँध टूट गया- " हत्यारे, तूने मेरा खून पिया है, मेरी जिंदगी बरबाद की है! मैं तुझे ऐसे नहीं जाने दूंगी"
    उसने उस पर पत्थर दे मारा जिससे उसकी फर की टोपी नीचे गिर गयी ।
    वक्त बदला, परिस्थितियाँ बदली और दूइशेन भी बदला, आल्तीनाई भी बदली।
    आज कुरकुरेव गाँव में एक विद्यालय का उद्घाटन है। जिसमें आल्तीनाई आमंत्रित है। पर इस का वास्तविक हकदार तो दूइशेन है जिसने इस अशिक्षित गाँव के बच्चों को शिक्षा दी। वही तो सच्चा अध्यापक, वही तो इस गाँव का पहला अध्यापक है। जिसने इस गाँव को शिक्षित किया।
    लोग आज दूइशेन के प्रयास, मेहनत को भूल गये। बस उन्हें नहीं भूली तो आल्तीनाई । वह तो टीले पर खङे पोपलर के उन पेङों को निहार रही है, जिन्हें बचपन में उनके अध्यापक ने लगाया था।
    "हर प्राणी का अपना वसंत और अपनी पतझङ होती है।"
    प्रस्तुत उपन्यास एक सच्चे कम्युनिस्ट की कहानी बताता है, जो सर्वस्व समर्पण कर सच्चे दिल से अपने कर्तव्य को समर्पित है। जिसके अथक कठिन परिश्रम से गाँव में शिक्षा की ज्योति जलती है।
    लोग चाहे उसके समर्पण को भूल गये पर उसके शिष्य आज भी उसे सच्चे दिल से याद करते हैं।
    एक अच्छा उपन्यास, अवश्य पढें।
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    उपन्यास- पहला अध्यापक (Duishen)
    लेखक- चिंगीज आइत्मातोव
    अनुवाद- भीष्म साहनी
    हिंदी प्रकाशन -गार्गी प्रकाशन दिल्ली ।
    प्रथम प्रकाशन- सन् 1963 में रादुगा प्रकाशन, मास्को द्वारा सोवियत संघ से प्रकाशित।
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    चिंगीज आइत्मातोव के उपन्यास "पहला अध्यापक" में जिन घटनाओं का जिक्र किया गया है, वे इस शताब्दी के तीसरे दशक में, मध्य एशिया में सोवियत सत्ता के स्थापनाकाल में घटी थी।
    (उपन्यास के अंतिम कवर पृष्ठ से)

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