हम जिस समाज और वातावरण में रहते हैं, शायद उसी का परिणाम होगा कि जब मैंने पहली बार यह लेख पढ़ा तो लगा मुझे कोई टक्कर मार रहा है। लगने लगा कि यह कैसे हो सकता है। अपना आपा झूठा लगने लगा कि -- तो क्या सम्पूर्ण मिथ्या के जहाज पर चल रहे हैं हम। ऐसा कैसे सम्भव है। मैंने दुबारा पढ़ा और लगा कि हाँ वही जहाज है, वही हवाएँ हैं, वही लहरें हैं, वही अँधेरा है -- रोशनी का तो धोखा भर है। धोखा जीवन का आधार है, जिसे हम सच मानकर चल रहे हैं। अजीब–सी हालत थी। जितने दिन इसे अनुवाद करने में लगे, जितनी विसंगतियाँ व्यावहारिक क्रियाकलापों में आयीं, सभी का जवाब मुझे इससे मिलता लगता रहा।
आज सिर्फ ललित व्याख्याएँ नहीं हैं, विश्लेषण है, प्रमाणों, दस्तावेजों और आँकड़ों के साथ। घृणा है अपने पूरे जोश में, जिसकी आज हमें जरूरत है। शायद बुद्धिजीवीगण आँखों पर धुँधला पर्दा डालकर चलने के आदी हैं, इसलिए धुँधली व्याख्याएँ करते हैं। इसमें धुँधलेपन से परहेज है।
खैर यह तो मेरे विचार हैं, आपके विचारों के लिए प्रस्तुत हैं।
--अनुवादक
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