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लोक, शास्त्र और सांस्कृतिक वर्चस्व

40 /-  INR
उपलब्धता: स्टॉक में है
लेखक:
भाषा: हिन्दी
आईएसबीएन: 978-93-94061-30-9
पृष्ठ: 52
संस्करण: 1
प्रकाशन तिथि:
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फ्रिटस स्टाल और मिल्टन सिंगर जैसे समाजशास्त्रियों की तरह मेरा भी यही मानना है कि वैदिक-ब्राह्मण परम्परा जैसी कोई किताब स्वयं पुस्तकालय होने का दावा नहीं कर सकती। सारी छोटी-बड़ी पुस्तकों, ग्रंथों, पुस्तिकाओं, पत्रिकाओं, पम्फलेटों आदि से मिलकर कोई पुस्तकालय बनता है, उसी प्रकार हर तरह की परम्पराओं-संस्कृतियों ने मिल कर हमारे देश की समृद्ध, परम्परा और इन्द्रधनुषी संस्कृति को सैकड़ों-हजारों सालों में गढ़ा है। 'अनेकता में एकता' या किसी और नारे के नाम पर उनकी विविधता, विशिष्टता, बहुलता और बहुरंगी इन्द्रधनुषी सौन्दर्य को नष्ट होने नहीं दिया जा सकता। इसलिए 'अनेकता और एकता' ज्यादा बेहतर और बहुलतावादी अवधारणा है, अपने देश की प्रकृति के अनुरूप ।

 

सौन्दर्यशास्त्र के व्याख्याता और लेखक डॉ. ब्रह्म प्रकाश विदुषी नृत्या पिल्लई के समर्थन में लिखे अपने आलेख में यह टिप्पणी करते हैं कि "अगर भारतीय कला-रूपों को ईमानदारी पूर्वक जनतांत्रिक बनाना है तो 'शास्त्रीय' शब्दावली को मृत घोषित करना होगा।" ... डॉ. प्रकाश के अनुसार, "यह शास्त्रीय शब्दावली, ब्राह्मणवाद और मध्य वर्ग को विशेष अवसर देने के लिए एक ठोस मंच प्रदान करती है। पिछले कुछ वर्षों में यह गठजोड़ ज्यादा साफ-साफ दिखाई पड़ रहा है। और यह भी कि कैसे 'शास्त्रीयता' का वर्गीकरण भारतीय नृत्य और संगीत के मंचों से निम्नवर्गीय कलाकारों को बाहर का रास्ता दिखाने, ठुकराने और अयोग्य साबित करने के लिए उपयोग में लाया जाता रहा है।"

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रणेन्द्र रणेन्द्र

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