मार्क्सवाद–लेनिनवाद को पढ़ने–पढ़ाने के दो तरीके हैं। एक तरीका है, उसे कोरे सिद्धान्त की तरह किताबी तौर पर पढ़ना और दूसरा तरीका है, उसे जनता की रोजमर्रा की जिन्दगी से मिलाकर रचानात्मक तौर पर पढ़ना। किताबी तौर पर पढ़ने–पढ़ाने से मतलब है--जैसे हमारे देश के स्कूलों में किताबें पढ़ाई जाती हैं या यों कहिए कि रटाई जाती हैं।
इस तरह से पढ़ना–पढ़ाना मजदूरों और किसानों को बड़ा रूखा लगता है। इससे उनके पल्ले कुछ नहीं पड़ता। पढ़ने–पढ़ाने का यह तरीका गलत है।
रचनात्मक तरीका यह है कि मार्क्सवाद की हर एक बात को अपने चारों तरफ की जिन्दगी से मिसालें लेकर उन पर लागू करते चलना। इसके बगैर मार्क्सवाद निर्जीव–सा लगेगा। मजदूर को उसके शहर और कारखानों की मिसालों के साथ समझाने से उसे मार्क्सवाद एक जिन्दा सिद्धान्त लगेगा। तभी उसे मार्क्सवाद में अपनी जिन्दगी के सब सवालों का हल नजर आयेगा। इसे कहते हैं--सिद्धान्त को काम और जीवन की कसौटी पर उतारते हुए पढ़ना–पढ़ाना। इसी तरह किसानों को समझाने के लिए उनकी जिन्दगी से मिसालें लेनी चाहिए।
यह पाँच पुस्तिकाओं का सेट है--
1. कम्युनिस्ट क्या चाहते हैं
2. पूँजीवादी समाज
3. राजसत्ता
4. पूँजीवादी जनवाद
5. समाजवादी जनवाद
फोटो | नाम और परिचय | अन्य पुस्तकें |
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शिव वर्मा |
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