‘रूस की क्रान्ति’ पुस्तक श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी ने 1942 से 1945 तक के बीच लिखी थी, जो सम्भवत: लियोन त्रात्स्की के ‘हिस्ट्री ऑफ रशियन रिवोल्यूशन’ पर आधारित है। यह पुस्तक 1944–45 में अप्रकाशित रही। साम्यवाद या मार्क्सवाद में विश्वास करनेवालों के लिए यह तब भी सारगर्भित थी और आज भी है।
1917 की रूस की क्रान्ति विश्व इतिहास की एक बहुत बड़ी घटना थी। 20वीं सदी की शुरूआत में रूस आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक मोर्चे पर तेज बदलावों से गुजर रहा था। ऐसी हालत में जनता नये–नये प्रयोग कर रही थी। 1917 की क्रान्ति का प्रारम्भिक उद्देश्य था, नौकरशाही राजतंत्र को उलट देना। लेकिन वह राजतंत्र को उलटकर सिर्फ प्रजातंत्र पर ही रुकी नहीं रही।--
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2017 रूस की क्रांति का शताब्दी वर्ष है . सौ साल पहले हुए इस क्रांति की चमक का मानव विकास की पट्टी पर आज तक धुंधली नहीं हुई है न आने वाले कल में होगी . वर्षों से जारशाही की पीढ़ा झेल रहे रूस में 25 अक्तूबर 1917 को ऐसी लकीर खिंची गयी जो आज तक कायम है . जिस समाजवाद को यूटोपियन सोसाइटी माना जा रहा था उस समाजवाद को रूस की क्रांति ने जमीन पर स्थापित किया . इस महान क्रांति का प्रभाव विश्व के चिंतक , दार्शनिक , वैज्ञानिक , लेखकों पर पड़ा . क्रांति से प्रभावित भारत के लोग इस क्रांति का स्वागत श्रद्धाभाव से किए . रामवृक्ष बेनीपुरी रूस की क्रांति से बेहद प्रभावित , क्रांति के प्रभाव में ही उन्होंने 1931 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना किये. इसी प्रभाव में 1942 से 1945 के बीच हजारीबाग जेल में रखते हुए रूस की क्रांति किताब लिखी . जो लियोन त्रात्स्की की History Of Russian Revolution पर आधारित हैं
यह किताब शुरू होती है प्रथम विश्व युद्ध के रूस से जब किसानों को फौज में भर्ती किया जा रहा होता है और मोर्चे पर लड़ रहे सैनिक युद्ध से ऊब चुके रहते हैं. फरवरी क्रांति की जमीन तैयार हो चुकी रहती है , किसानों , मजदूरों और बाद में सैनिकों के दम पर जारशाही उखाड़ फेक दे जाती है . लेकिन किताब का मुख्य भाग फरवरी क्रांति से अक्टूबर क्रांति के बीच के उथल पुथल है ।
रूस की क्रांति पर मैंने कई किस्से सुने हैं लेकिन सब टुकड़ों में । यहाँ वहाँ कुछ पढ़ा भी तो सिलसिले वार तौर पर नहीं बस किसी का घटना का प्रसंग । बेनीपुरी जी रूस के घट रहे हर एक घटना का विस्तार से वर्णन लिखते हैं जारशाही के बन्दूकों से निकले हर एक गोली का दिशा बताते हैं । जारशाही से अक्टूबर क्रांति के बीच हुए कारखानों में अधिकांश हड़ताल का ज़िक्र करते हैं । गर्भ में क्रांति के विकास के हर पल का वर्णन करते हैं
किताब रूस की क्रांति का ज़िक्र करती है लेकिन इसमें कई पहलु छूट गए हैं। क्रांति की ज़मीन तैयार करने में राजनितिक लोगों के योगदान को बखूबी दिखती हैं लेकिन रूस के साहित्य का वहां के किसानों और मजदूरों पर क्या प्रभाव हुए इस पहलु को ज़रा भी छूआ नहीं गया है। रूस के विश्व साहित्य में योगदान देने वाले लेखकों का महत्वपूर्ण काम को बेनीपुरी जी छोड़ गए हैं। किताब का एक दूसरा कमजोर पक्ष यह लगा की किताब में बोल्शेविक पार्टी के नेताओं के तुलना में फरवरी क्रांति के बाद बनी सरकार के लोगों पर ज़्यादा पन्ने दिए गए हैं। बेनीपुरी जी की यह किताब ट्राटस्की की किताब पर आधारित है सो यहाँ भी ट्राटस्की का ही एंगल ज़्यादा आ आता है। स्टालिन पर बेहद कम लिखा गया है।
महत्वपूर्ण काम किया है गार्गी प्रकाशन ने लगभग 70 वर्षों तक अप्रकाशित रामवृक्ष बेनीपुरी की इस महत्वपूर्ण किताब को छापा . सौ वर्ष पूर्व में घटित स्वर्णिम घटना को नई पीढ़ी के लिए बताने का काम किया है .
किताब में एक चैप्टर है बोल्शेविक और सोवियत . यह चैप्टर भारत के , विश्व के किसी भी जगह के पार्टियों ( जो क्रांति के पक्षधर हैं ) के लिए उपयोगी है . यह चैप्टर बताता है की रूस में क्रांति करने वाली बोल्शेविक पार्टी और जनता के बीच कैसे सामंजस्य थे . बोल्शेविक लोग जनता को कैसे समझते थे. बेनीपुरी जी लिखते हैं ----
''क्या बात है की पार्टी का संघठन इतना ढीला होने और साधनों की इतनी कमी होने के बावजूद बोल्शेविकों के विचार और नारे इतनी तेज़ी से लोगों में फ़ैल गये ? इसकी कैफियत बहुत सीधी थी. बोल्शेविकों ने जो नारे थे, वे जनता की मनोवृति और जरूरतों को सही सही प्रकट करते थे, वे जमाने के प्रतिक थे और जमाना अपने लिए हजारों रास्ते बना लिया करता है. लाल गरम क्रांतिकारी तारों के जरिए विचारों की बिजली एक क्षण में दूर दूर तक जा पहुँचती है बोल्शेविकों अखबारों जो जोरों से पढ़ा जाता था, टुकड़े टुकड़े करके पढ़ा जाता था अच्छे लेखों को लोग कंठस्थ कर लेते थे उन्हें जबानी सुनाते थे, उनकी नक़ल करते थे जहाँ संभव होता फिर छाप लेते थे, ‘प्रावदा’ के लेखों का मोरचों पर ये सैनिक इसी तरह से आपस में प्रचार करते थे. हवाई डाक, साईकिल, मोटर साईकिल – सबका प्रयोग वे उसके जल्द प्रचार के लिए करने में नहीं चुकते थे.
बोल्शेविकों के नारों का सीधा साधा होना भी उनके शीघ्र प्रचार का एक प्रमुख कारण था. जहाँ दुसरे पार्टियाँ हर बात को पंडिताऊ बनाने की कोशिश करतीं, वहां बोल्शेविकों उन्हें इतने सरल ढंग से रखते की जनता के निम्न स्तर के लोगों को भी समझने में देर नहीं होती. बोल्शेविकों ने नारे सीधे-साधे होते वे जनता के अनुभवों को उनके ही शब्दों में प्रकट करते श्रमजीवी जनता अपने संघर्षों में सिर्फ मांगों और जरूरतों से ही प्रेरित नहीं होती, उनकी ज़िन्दगी के तीखे-कडुवे अनुभव भी उनका पथ प्रदर्शन करते हैं. बोल्शेविकों के ह्रदय में जनता है जीवन के स्वतंत्र अनुभवों के लिए ऊँचे खानदान के लोगों की तरह घृणा नहीं थी बल्कि उन्हीं के अनुभवों के आधार पर वे अपने नारों के सही और सच्चे होने की परख करते.''
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