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स्वाधीनता संग्राम में मुस्लिम भागीदारी

50 /-  INR
उपलब्धता: स्टॉक में है
कैटेगरी: इतिहास
भाषा: हिन्दी
आईएसबीएन: 8187772464
पृष्ठ: 88
अनुवादक: कामता प्रसाद
कुल बिक्री: 1344
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भूमिका

अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह करने में मुसलमान सबसे आगे थे।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि मुसलमानों ने राष्ट्रीय आन्दोलन में जबरदस्त भूमिका निभायी। वे देशभक्त और समर्पित लोग थे और इसलिए उन्होंने भारत का शोषण करने वाली विदेशी ताकतों को बाहर खदेड़ने के लिए कठिन संघर्ष किया। राष्ट्रीय आन्दोलन के वस्तुगत अध्ययन से यह पता चलता है कि राष्ट्रवादी जनउभार में मुसलमान कभी पीछे नहीं रहे। भारत की आजादी के लिए वे दूसरे समुदाय के लोगों के साथ कन्धा से कन्धा मिलाकर लड़े। गृह मंत्रालय की फाइलें उनके अकूत बलिदानों से भरी पड़ी हैं, जिनके चलते 1947 में अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा।

हैदर अली और उनके बेटे टीपू सुल्तान दक्कन (दक्षिण भारत) में अंग्रेजों के बढ़ते कदमों को रोकने के लिए अठारहवीं सदी में उठ खड़े हुए। बंगाल के फकीरों की बगावत तथा फराइजी और वहाबी आन्दोलन ने भारत में अंग्रेजी राज के विस्तार की शुरुआती योजना की रफ्तार को अस्त–व्यस्त कर दिया था। खिलाफत आन्दोलन ने भारत में अंग्रेजी राज के खिलाफ भारी तादाद में मुसलमानों को लड़ाकू बनाने में प्रगतिशील भूमिका निभायी। राष्ट्रवाद को बढ़ाने में इस आन्दोलन ने सकारात्मक भूमिका निभायी। अंग्रेजों के खिलाफ घृणा और क्रोध की चिंगारी 1857 में एक बार फिर फूट पड़ी। इस बार यह महज किसी एक समूह की बगावत नहीं थी बल्कि पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ एक जनविद्रोह था, जिसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के नाम से जाना जाता है।

उल्लेखनीय है कि 1857 तक आजादी का कारवाँ लगभग पूरी तरह मुसलामानों के नेतृत्व में चला। चूँकि सत्ता मुसलामानों से छीनी गयी थी, इसलिए स्वाभाविक रूप से वे विजातीय सरकार के पहले नम्बर के दुश्मन थे। सुभाष चन्द्र बोस की सेना–– आईएनए में बहुत सारे मुसलमान भर्ती हुए।

आज इन कुर्बानियों को याद दिलाने का उद्देश्य वर्तमान में मुसलामानों को उनके वीरतापूर्ण अतीत की याद दिलाना है। क्योंकि कहा गया है कि कोई भी राष्ट्र जो अपने इतिहास को सहेजता नहीं वह युगों के अन्धकार में खो जाता है। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास में भारतीय मुसलामानों की वास्तविक भूमिका का यथोचित उल्लेख जरूरी है। उन लोगों और उनके बलिदानों ने क्रान्तिकारी आशा के एक अमिट स्रोत की भूमिका निभायी है।

अंग्रेजों के शिकंजे से भारत को आजाद करने में मुसलमानों ने जो बलिदान दिये हैं उनका ही वर्णन इस किताब में है। मुझे उम्मीद है कि अल्पसंख्यकों और बुद्धिजीवियों के खिलाफ असहनशीलता के मौजूदा माहौल में यह किताब सामाजिक–राजनीतिक मुद्दों को समझने में सहायक होगी।

इस किताब में तीन लेख शामिल हैं, जिनके शीर्षक हैं––

1–           भारत के उपनिवेश–विरोधी और राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन में मुस्लिम सेनानियों की भूमिका।

2–           1915 का सिंगापूर विद्रोह : भारतीय इतिहास का एक गौरवशाली अध्याय।

3–           शेर अली खान, जिसने भारत की धरती पर अंग्रेज वायसराय की हत्या की।

पहले दो लेख अंग्रेजी पुस्तक द गदर मूवमेंट एंड इण्डियाज’ एंटी–इम्पीरियलिस्ट स्ट्रगल से लिये गये हैं जो नवम्बर 2013 में ग़दर आन्दोलन की शतवार्षिकी समारोह के अवसर पर प्रकाशित हुई थी। इसका प्रकाशन ‘प्रोग्रेसिव पीपुल्स फाउंडेशन ऑफ़ एडमोंटन, अल्बर्टा, कनाडा द्वारा किया गया था। (सजिल्द, पृष्ट 566य सम्पादक डॉ पी आर कालिया)। तीसरा लेख पहली बार अंग्रेजी में एसियन टाइम्स समाचारपत्र, एडमोंटन (सम्पादक डॉ पी आर कालिया) में प्रकाशित हुआ था। मैं इस पुस्तक के हिन्दी अनुवादक श्री कामता प्रसाद का तथा इसे प्रकाशित करने के लिए गार्गी प्रकाशन का हृदय से आभारी हूँ।

आज जबकि साम्प्रदायिक फासीवाद के ‘अच्छे दिन’ आये हुए हैं, ऐसे समय में जरूरी है कि यह पुस्तक हिन्दी पाठक वर्ग के व्यापक दायरे तक पहुँचे।

--डॉ पृथ्वी राज कालिया

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