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विश्वव्यापी कृषि संकट

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भाषा: हिन्दी
आईएसबीएन: 81-87772-69-7
पृष्ठ: 100
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आज की दुनिया एक विडम्बनापूर्ण स्थिति से गुजर रही है--एक ओर कृषि क्षेत्र अति–उत्पादन की अवस्था में पहुँच चुका है तो दूसरी ओेर, दुनिया–भर में करोड़ों लोग भुखमरी और कुपोषण के शिकार हैं। सटोरिया पूँजी ने गेहूँ, चावल, मक्का, गन्ना, फल सब्जियाँ, मांस, मछली आदि को मुनाफाखोरों की सनक पूरी करने के लिए अपनी जकड़ में ले लिया है। अच्छी उपज के बावजूद बढ़ती लागत और विश्व बाजार की अनिश्चित कीमतों के कारण खेती और खेतिहर समाज संकटग्रस्त है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार देश के 40 प्रतिशत किसान खेती छोड़ देना चाहते हैं, लेकिन उनकी मजबूरी है कि वे जायें तो जायें कहाँ।

पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली की खासियत यह है कि उत्पादन सहित अर्थव्यवस्था के विभिन्न पहलुओं से लेकर राजनीति, शिक्षा, संस्कृति, मूल्य–मान्यता आदि हर क्षेत्र को वह अपनी गिरफ्रत में ले लेती है। जाहिर है, कृषि क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं रहता। कृषि क्षेत्र अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों से इस रूप में भिन्न है कि इस क्षेत्र में अपना वर्चस्व स्थापित करने में पूँजीवाद को लम्बा समय लगा। लेकिन साम्राज्यवादी वैश्वीकरण के बाद सटोरियाँ पूँजी ने पूरी दुनिया के कृषि क्षेत्र को तेजी से अपनी गिरफ्रत में लेना शुरू कर दिया। अन्तरराष्ट्रीय मुæा कोष, विश्व बैंक और विश्व व्यापार संगठन बहुराष्ट्रीय निगमों के हित में इस काम को अन्जाम देने में लगे हैं। भारत के कृषि क्षेत्र में भी विश्व पूँजी के इस वर्चस्व को देखा जा सकता है-- खाद्यान्नों की कीमत पर निर्यात फसलों की खेती, ठेका खेती, अनाज व्यापार पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का वर्चस्व, सरकारों द्वारा कृषि क्षेत्र की सहायता में तेजी से कटौती, कृषि उत्पादों का वायदा कारोबार और इन सबके परिणामस्वरूप एक तरफ किसानों की तबाही और दूसरी तरफ अनाज, चीनी, दाल और अन्य जरूरी खाद्य पदार्थों की आसमान छूती कीमतें।

कृषि–विज्ञान के क्षेत्र में नयी–नयी खोजों के कारण हुई प्रगति ने मानव समाज को उस मुकाम तक पहुँचा दिया है कि दुनिया के हर व्यक्ति को स्तरीय और पोषक भोजन उपलब्ध कराना आसानी से सम्भव हैै। लेकिन मुनापफे की हवस इस उपलब्धि को जन–जन तक पहुँचाने में बहुुत बड़ी बाधा बनकर खड़ी है। बायो र्इंधन और टर्मिनेटर बीज जैसी खोजें इसी हवस को तृप्त करने के लिए निर्देशित हैं और इसका ही परिणाम है-- आम किसानों और उनकी खेती का संकटग्रस्त हो जाना।

प्रस्तुत संकलन कृषि से सम्बन्धित इसी संकट को समझने की दिशा में एक प्रयास है। इस संकलन के पाँच लेख मन्थली रिव्यू के विशेषांक जुलाई–अगस्त 1998 से लिये गये हैं। एक लेख यपाँचवाँद्ध उसी जरनल के विशेषांक जुलाई–अगस्त 2009 से लिया गया है। इसके लिए हम मन्थली रिव्यू के आभारी हैं।

पहला लेख कृषि में पूँजीवाद का प्रवेश और उसका विकास तथा कृषि के पूँजीवादीकरण का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करता है। पूँजीवाद आगे बढ़ते–बढ़ते अपनी मरणासन्न अवस्था-- साम्राज्यवाद में प्रवेश किया, जिसकी चारित्रिक विशेषता है-- एकाधिकार। कृषि क्षेत्र में भी पूँजीवाद इसी प्रक्रिया से गुजरता है और आगे चलकर  कृषि भी एकाधिकारी पूँजी के अधीन हो जाती है। दूसरा लेख इसी पर केन्æित है। तीसरा लेख कृषि को साम्राज्यवादी पूँजी के अधीन किये जाने के कारण किसानों के जमीन के अधिकार से वंंचित होने और सर्वहारा में बदलने, या जमीन का मालिक होने के बावजूद सारत: पूँजी का गुलाम होते जाने के बारे में है। चैथा लेख इस बात पर केन्æित है कि जैव प्रौद्योगिकी जैसी उन्नत तकनीकें किस तरह आम किसानों और आम जनता की सेवा करने के बजाय साम्राज्यवादी पूँजी के मालिकों का स्वार्थ सिद्ध करती है। पाँचवाँ लेख साम्राज्यवाद की लफ्रफाजी और मुक्त व्यापार तथा उदारीकरण की सूक्तियों के पीछे छिपे वास्तविक उद्देश्यों का पर्दाफाश करता है। आधुनिक खेती के विकास के भिन्न–भिन्न चरणों में विभिन्न देशों में हुए भूमि सुधारों के स्तर का बहुत ज्यादा महत्त्व रहा है। चीन का उदाहरण लेते हुए लेखक ने समाज और देश की प्रगति में भूमि सुधारों के महत्व को रेखांकित किया है।

आशा है, पाठकों को यह संकलन पसन्द आयेगा। इन लेखों की कुछ प्रस्थापनाएँ बहसतलब हो सकती हैं, उन पर सहमति–असहमति हो सकती है, लेकिन फिर भी, उम्मीद है कि इनसे कृषि क्षेत्र के संकटग्रस्त होने के कारणों के बारे में बेहतर समझ हासिल करने में मदद मिलेगी। हमें पाठकों की आलोचनाओं और प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहेगी।

--गार्गी प्रकाशन

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