माओ त्से–तुंग की मृत्यु के बाद चीन समाजवाद से पतित होकर पूँजीवाद में तब्दील हो चुका है–– कुछ अपवादों को छोड़कर यह हमारे देश की मार्क्सवादी–लेनिनवादी पार्टियों और ग्रुपों के लिए मान्य तथ्य है । फिर भी, बहस उभरती है कि बाद के चार दशकों से ज्यादा की अवधि में चीन किधर बढ़ा – साम्राज्यवादी बना या साम्राज्यवाद द्वारा उत्पीड़ित देशों की सूची में शामिल हो गया या वहीं रुका हुआ है ?
इस पुस्तक में लिखा गया है कि चीन के आठवीं से बारहवीं पार्टी कांग्रेस के बीच के राजनीतिक उथल–पुथल को समझना भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन में नयी जान फूँकने के लिए जरूरी है ।
इसमें चीन में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना और एक समाजवादी अर्थव्यवस्था के साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था में रूपान्तरण का आर्थिक–राजनीतिक विश्लेषण भी किया गया है ।
इस पुस्तक के अन्त में चीनी साम्राज्यवाद के प्रभुत्व के विस्तार की चर्चा की गयी है और “अमरीका और यूरोप की धुरी के सामने चीन और रूस की नयी धुरी के निर्माण से नये शक्ति सन्तुलन की स्थिति पैदा हो गयी है ।” यानी आज दुनिया बहुध्रुवीय होती जा रही है या कम से कम द्विध्रुवीय तो जरूर हो गयी है ।
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राम कवीन्द्र |
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