प्रकाशक की ओर से
विज्ञान और वैज्ञानिक नजरिये के बीच गहरा सम्बन्ध होता है। लेकिन हमारे देश और समाज में एक अजीब विरोधाभास दिखाई दे रहा है। एक तरफ विज्ञान और तकनोलोजी की उपलब्धियों का तेजी से प्रसार हो रहा है तो दूसरी तरफ के जनमानस में वैज्ञानिक नजरिये के बजाय अंधविश्वास, कट्टरपंथ, पोंगापंथ, रूढ़ियाँ और परम्पराएँ तेजी से पाँव पसार रही हैं। वैश्वीकरण के प्रबल समर्थक और उससे सबसे अधिक फायदा उठाने वाले तबके ही भारतीय संस्कृति की रक्षा के नाम पर अतीत के प्रतिगामी, एकांगी और पिछड़ी मूल्य–मान्यताओं को महिमामंडित कर रहे हैं। वैज्ञानिक नजरिया, तर्कशीलता, प्रगतिशीलता और धर्मनिरपेक्षता की जगह अंधश्रद्धा, संकीर्णता और असहिष्णुता को बढ़ावा दिया जा रहा है।
विज्ञान की जीत के मौजूदा दौर में यदि वैज्ञानिक नजरिया लोगों की जिन्दगी का अंग नहीं बन पाया तो इसके कई कारण हैं। अज्ञान के अलावा, अज्ञात का भय, अनिश्चित भविष्य समस्या का सही समाधान होते हुए भी लोगों की पहुँच से बाहर होना, समाज से कट जाने का भय, परम्पराओं से चिपके रहने की प्रवृत्ति, धर्मभीरुता और ईश्वर में आस्था तथा धर्म गुरुओं, महापुरुषों या मठाधीशों के प्रति अंधश्रद्धा के चलते लोग अंधविश्वास के जाल में फँस जाते हैं। विज्ञान का अध्ययन–अध्यापन करने वाला कोई भौतिकशास्त्र का शिक्षक यह जानता है कि पदार्थ को उत्पन्न या नष्ट नहीं किया जा सकता। लेकिन निजी जिन्दगी में वह किसी बाबा द्वारा चमत्कार से भभूत पैदा करने या हवा से फल या अंगूठी निकालने में यकीन करता है। यह उस शिक्षक का अज्ञान नहीं बल्कि वैज्ञानिक नजरिया का अभाव है। उसके लिये विज्ञान की जानकारी केवल रोजी–रोटी कमाने का साधन है। जीवन में उसे उतारना या कथनी–करनी के भेद को मिटाना उसकी मजबूरी नहीं। और तो और, ऐसे अर्धज्ञानी अक्सर कुतर्क के जरिये अंधविश्वास को सही ठहराने में विज्ञान का इस्तेमाल करने से भी बाज नहीं आते।
आज हम एक विचित्र स्थिति का सामना कर रहे हैं-- विज्ञान जितनी तेजी से आगे बढ़ रहा है, वैज्ञानिक नजरिया उतनी ही तेजी से गायब होता जा रहा है। ऐसा क्यों है ?
इक्कीसवीं सदी के इस मुकाम पर हमारे देश में मध्ययुगीन, अवैज्ञानिक–अतार्किक, जड़मानसिकता का प्रभावी होना बहुत ही चिन्ता का विषय है। यह हमारे देश और समाज की प्रगति में बहुत बड़ी बाधा है। हालाँकि वैज्ञानिक चेतना और दृष्टिकोण के प्रचार–प्रसार में कई सरकारी–गैरसरकारी संस्थाएँ सक्रिय हैं, लेकिन उनका प्रभाव अभी बहुत ही सीमित है।
इस पुस्तिका में संकलित लेख वैज्ञानिक नजरिया विकसित करने की दिशा में सक्रिय एक ऐसे ही मंच-- द बैंगलोर साइन्स फोरम द्वारा 1987 में प्रकाशित ‘‘साइन्स, नॉन साइन्स एण्ड द पारानौरमल’’ नामक एक दुर्लभ संकलन से लिये गये हैं। इस संकलन में विज्ञान और वैज्ञानिक नजरिये से सम्बन्धित गम्भीर लेखों के अलावा अंधविश्वास और चमत्कार का पर्दाफास करने वाले कई लेख संकलित हैं। डॉ एच नरसिम्हैया के नेतृत्व में गठित जाने माने वैज्ञानिकों के इस मंच ने विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रचार–प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। अपनी क्षमता और सीमा को देखते हुए हमने इनमें से 10 लेखों का चुनाव किया और हिन्दी पाठकों के लिए उनका अनुवाद प्रस्तुत किया है। आगे इस विषय पर अन्य लेखों का अनुवाद भी प्रकाशित करने का प्रयास किया जायेगा। पाठकों से अनुरोध है कि वे इस पुस्तिका के बारे में अपने सुझाव और आलोचना से हमें अवश्य अवगत करायेंगे।
--गार्गी प्रकाशन
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