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मुनाफे की जकड़ में विज्ञान

100 /-  INR
उपलब्धता: प्रिंट स्टॉक में नहीं है
कैटेगरी: विज्ञान/दर्शन
भाषा: हिन्दी
आईएसबीएन: 8187772425
पृष्ठ: 152
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इस पुस्तक में विज्ञान की दोहरी प्रकृति के सामान्य प्रसंग के इर्द गिर्द लिखे निबन्धों का संकलन है। एक तरफ विज्ञान हजारों वर्ष के मानव ज्ञान का क्रमबद्ध विकास है, लेकिन दूसरी ओर यह एक पूँजीवादी ज्ञान उद्योग के विशेष उत्पाद की तरह माल में बदल दिया गया है। इसी का नतीजा है, सम्पूर्ण वैज्ञानिक उद्यम की निरन्तर बढ़ती अतार्किकता के साथ–साथ प्रयोगशाला और शोध परियोजना के स्तर पर लगातार परिष्कृत होता जा रहा एक विचित्र विकास। यह हमें अन्तदृषटि और अन्धापन, ज्ञान और विज्ञान की एक बुनावट प्रदान करता है जो प्रकृति का आदेश नहीं है, और इस तरह यह हमारी प्रजाति के सामने मौजूद बड़ी समस्याओं के आगे लाचार छोड़ देता है। यह दोहरी प्रकृति हमें एक ऐसा विज्ञान प्रदान करती है जो अपने आन्तरिक विकास से तो प्रेरित है ही, यह हमारे समय की केन्द्रीय बौद्धिक समस्यायें जैसी जटिलताओं को समझने में इसके प्रयोग के बेहद मिश्रित नतीजे से भी संचालित है। लेकिन इसे लघुकरणवाद की दार्शनिक परम्परा, शोध के संस्थागत विखण्ड़न और ज्ञान को बिकाऊ माल बनाने वाले राजनीतिक अर्थशास्त्र द्वारा पीछे धकेला जा रहा है।

इसमें शामिल कुछ छोटे लेख कैपिटलिज्म, नेचर, सोशलिज्म जॉरनल में छपने वाले हमारे स्तम्भ– ‘‘एपुर सी मूवे’’ (लेकिन वह तो घूम रही है) से ली गयी हैं। इनमें अनुवांशिक नियतिवाद पर लेख, ‘‘क्या हम योजनाकृत हैं’’ सांख्यिकी पर ‘‘औसत की राजनीति’’, ‘‘दूसरी दुनिया में जीवन’’, ‘‘विकासवादी मनोविज्ञान’’ और कुछ अन्य लेख भी शामिल हैं। लम्बे निबन्ध जो पहले प्रकाशित हो चुके हैं, उनमें अनिश्चितता, खेर्ता का राजनीतिक अर्थशास्त्र, प्रारूप निर्माण, जीव/पर्यावरण सम्बन्ध और अव्यवस्था पर विचार किया गया है। 

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