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मूसा से मार्क्स तक

340 /-  INR
1 रिव्यूज़
उपलब्धता: स्टॉक में है
कैटेगरी: विज्ञान/दर्शन
भाषा: हिन्दी
आईएसबीएन: 978-81-955764-2-5
पृष्ठ: 400
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एक नयी और पठनीय पुस्तक आपके समक्ष प्रस्तुत है-- मूसा से मार्क्स तक, लेखक-- सैय्यद सिब्ते हसन. मूल रूप से उर्दू में छपी इस किताब का हिंदी अनुवाद डॉ फ़िदा हुसैन ने किया है.
मार्क्स और एंगेल्स ने अपने साम्यवादी विचारों को ‘वैज्ञानिक समाजवाद’ और पुराने समाजवाद को ‘काल्पनिक समाजवाद’ से परिभाषित किया था। काल्पनिक समाजवाद से उनका अभिप्राय सामाजिक सुधार की वे योजनाएँ थीं जो यूरोप के बुद्धिजीवी समय–समय पर प्रस्तुत करते रहते थे। तथ्य, समाज के वास्तविक हालात से नहीं प्राप्त किये गये थे बल्कि उन विचारकों की व्यक्तिगत इच्छाओं के प्रतिबिम्ब थे। इसके विपरीत वैज्ञानिक समाजवाद, पूँजीवादी व्यवस्था के वास्तविक हालात का जरूरी और तार्किक परिणाम था। इसके नियम सामाजिक विकास और विशेष रूप से पूँजीवादी व्यवस्था के गहन अध्ययन से प्राप्त किये गये थे। इस किताब के शुरू के आधे हिस्से में विस्तार से दुनिया भर के आदिम काल से अब तक के तमाम साम्यवादियों-समाजवादियों के बारे में और उनके सिधान्तों के बारे में दिया गया, जिससे गुजरना बेहद रोचक और ज्ञानवर्धक है। किताब के बाकी के आधे हिस्से में मार्क्स- एंगेल्स के लेखन के जरिये वैज्ञानिक समाजवाद की रूपरेखा बनाई गयी है। समाजवाद के इतिहास को एंगेल्स की मृत्यु पर समाप्त कर दिया गया है। हालाँकि बाद में समाजवादी जीवन दर्शन अब तरक्की करके एक जिन्दा हकीकत, एक अन्तरराष्ट्रीय शक्ति बन गया है।
इस किताब का अध्ययन हर उस व्यक्ति को करना चाहिए जिसे दुनिया के इतिहास तथा उसकी चालक शक्तियों के कालक्रम को समझने की जिज्ञासा हो। 
पेज -- 400
  • बेहद गरीबी में जीवन काट रहा जाक रूसो से किसी ने कहा कि एकेडमी ऑफ दि जॉन ने एक इनामी लेख प्रतियोगिता का आयोजन किया है। जिसका विषय था कि 'कला, संस्कृति और विज्ञान से मानव जाति को लाभ हुआ है या नहीं' ? कहते हैं कि दोस्तों ने रूसो को सलाह दी कि यदि वो अपने लेख में, विषय के खिलाफ लिखे तो ईनाम अवश्य मिलेगा।

    गुरबत में जी रहा रूसो ने ऐसा ही किया। उसने अपने लेख में कला और शिक्षा की कठोर निंदा की और लिखा कि शिक्षा से आजादी का अहसास मर जाता है, जो मनुष्य की प्रकृति में है और वो दासता की बेड़ियों से प्यार करने लगता है। उसने कहा, गणित वो ही पढ़ता है जो लालची और लिप्सा से घिरा हुआ है। ज्ञान हासिल कर भाषणबाजी वो ही करता है, जिसे रूतबे की चाह होती है। विज्ञान भ्रम और संदेह की तरफ ले जाती है।

    खैर, रूसो जीत गया और उसे भारी भरकम ईनाम मिला। ईनाम की राशि प्राप्त करने के बाद सबसे पहले रूसो ने भरपेट खाना खाया और उसके बाद अपनी नई किताब लिखने बैठ गया। उसने उस किताब में लिखा कि क्यों शिक्षा बेहद जरूरी है। क्योंकि वो इंसान को जीने की अक्कल देती है, गणित मनुष्य को जागरूक करती है और विज्ञान आगे के रास्ते खोलती है।

    कुछ ऐसा ही था महान दाशर्निक रूसो। इतिहासकार सय्यद सिब्ते हसन अपनी प्रसिद्ध किताब मूसा से मार्क्स तक में लिखते हैं कि फ्रेंच क्रांति के बड़े नायकों में रूसो भी था। उसकी किताब मोआहदा इमरानी (सामाजिक संविदा), जो 1762 में प्रकाशित हुई और इतनी लोकप्रिय हुई कि फ्रांसीसी क्रांति की पवित्र किताब बन गई। इस किताब में व्यक्तिगत स्वतंत्रता के बजाये समानता पर बल दिया गया था।

    इस किताब में रूसो तंज कसते हुये कहते हैं कि सभ्य समाज का सबसे पहला व्यक्ति वो है, जिसने सबसे पहले जमीन के एक टुकड़े को चारों ओर से घेरा और यह दावा किया कि यह जमीन उसकी है। अगर किसी व्यक्ति ने उस वक्त उस घेरे को तोड़ दिया होता और लोगों को सचेत किया होता कि देखो इस फरेबी की बातों में कतई न आना। क्योंकि जमीन किसी एक व्यक्ति की संपत्ति नहीं हो सकती। जमीन का फल सबके लिये है। अगर ऐसा कुछ विरोध उस व्यक्ति का हुआ होता तो आज मानव जाति कितने युद्धों, कितने अपराधों, कितनी हत्याओं, कितनी विपदाओं और कितनी बर्बादियों से बच गया होता।

    रूसो का कहना था कि इंसान जब तक अपना काम खुद करता रहा, ऐसे काम जिनमे दूसरों की मदद की जरूरत नहीं होती थी। तब तक वो स्वतंत्र, स्वस्थ, नेक और खुश था। लेकिन जब एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य की सहायता की जरूरत हुई, जब उसने महसूस किया कि एक दिन के बजाये दो दिन का भोजन सुरक्षित कर लिया जाये तो समानता गायब होने लगी। निजी संपत्ति बनने लगी और दूसरे के श्रम की जरूरत महसूस होने लगी। रूसों के मुताबिक अनाज और लोहा मनुष्य के लिये सबसे बेकार वस्तुयें साबित हुई।
    (फेसबुक पोस्ट से साभार)

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