पुस्तक समीक्षा - क्या मजदूर वर्ग दुनिया को बदल सकता है
द्वारा In Book Reviewमज़दूर वर्ग ही बदल सकता है दुनिया को
- विजय गुप्त
मज़दूर शब्द सुनते ही उस विशाल और महान् वर्ग की याद आ जाती है जिसने अपनी मेहनत, ताक़त, संघर्ष और समझदारी से इस धरती को सुन्दर, संपन्न और रहने लायक़ बनाया है। आज धरती यदि अन्न देने वाली है, सोना, चांदी, हीरा, माणिक, मुक्ता और तरह-तरह के रत्न देने वाली है तो यह मनुष्य की श्रम शक्ति और सामूहिक चेतना से ही संभव हुआ है। श्रम की महत्ता और सामूहिक चेतना को रेखांकित करते हुए भगतसिंह ने बिल्कुल ठीक कहा था कि, ‘‘असली क्रांतिकारी सेना गांवों और फ़ैक्ट्रियों में है - किसान और मज़दूर।’’ यह भगतसिंह की दूरदृष्टि और राजनीतिक समझदारी थी कि उन्होंने किसान को मज़दूर वर्ग से जोड़कर देखा। वह अच्छी तरह से जान गए थे कि दुनिया को बदलने के लिए ज़रूरी है मज़दूर और किसान का एकजुट होना। उनका संयुक्त मोर्चा बनना।
माइकल डी येट्स भी अपनी पुस्तक ‘क्या मज़दूर वर्ग दुनिया को बदल सकता है?’ में किसान और मज़दूर एकता को, उनके संयुक्त मोर्चे को और पूंजीवादी-साम्राज्यवादी ताक़तों के विरुद्ध एक साथ मिलकर लड़ने को बहुत ज़रूरी माना है। वह दुनिया को बदलने का समाजवादी लक्ष्य सामने रखते हुए लिखते हैं कि, ‘‘इस बात पर बहुत ज़्यादा बहस हुई है कि किसान भी मज़दूर हैं या नहीं? वे अधिकतर छोटे किसान हैं और इसलिए मज़दूरी नहीं कमाते हैं। बेशक वह कर्मचारी भी नहीं हैं। हालांकि भूस्वामियों के हाथों उनके शोषण, सरकार द्वारा उनके साथ डराने वाला बर्ताव और बग़ावत की उनकी इच्छा को देखते हुए ये मज़दूर वर्ग के संभावनाशील सहयोगी हैं। और वे अपनी दो जून की रोटी जुटाने के लिए अक्सर मज़दूरी भी करते हैं। उनके बच्चे शहरों में छोटे-छोटे काम करते हैं और घर पर पैसा भेजते हैं। किसान आमतौर पर मज़दूर वर्ग से ज़्यादा दूर नहीं है। उनके संघर्षों को मज़दूर वर्ग का हर तरह से समर्थन मिलना चाहिए। मज़दूर-किसान एकता, जिसे चीन में स्थापित करने के लिए माओ-त्से-तुंग ने काम किया वह आज का उपयुक्त लक्ष्य है।’’1
मज़दूर और किसान एकता का बहुत ज़रूरी और ऐतिहासिक लक्ष्य फिलहाल भारत में बहुत पीछे छूटता हुआ दिखाई दे रहा है। यदि भारत में वामपंथी दल और धर्मनिरपेक्ष ताक़तें मिलकर पूंजीवादी-साम्राज्यवादी ताक़तों के विरुद्ध लड़तीं और अपनी ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी निभातीं तो सन् 2019 के 17 हवीं लोक सभा चुनाव का परिणाम कुछ और होता। कम से कम घोर दक्षिणपंथी और हिंदूवादी सांप्रदायिक भारतीय जनता पार्टी तो प्रचण्ड बहुमत से नहीं जीतती। भारत के इस चुनाव ने पूंजीवाद के पैंतरें, हथकंडे, दांव-पेंच, छल-बल और कपट के सारे राज़ खोल दिए हैं। सौदागर जिस तरह अपना सामान बेचता है, सामान की ब्रांडिंग करता है, उसी तरह नेताओं की भी मार्केटिंग-ब्रांडिंग की गई। बड़े-बड़े होर्डिंग्स-बोर्डिंग्स और कट आउट्स लगाए गए। कीर्तन की तरह दिन-रात उनके नामों की खंजड़ी बजाई गई। वह भगवान की तरह दिल-दिमाग़ में रोपे गए। फलना है तो मुमकिन है। ढेमका है तो नामुमकिन है का राग अलापा गया। धन पानी की तरह बहाया गया। खुल कर, पूरी बेशर्मी से, छाती ठोंक कर, ताली पीट कर झूठ बोला गया। झूठ को सच साबित किया गया और सच को दर-दर भटकने के लिए छोड़ दिया गया। नेकी, करुणा, दया, प्रेम, मित्रता, नैतिकता, सहानुभूति और परोपकार जैसे मानवीय मूल्यों की हत्या कर दी गई। अहिंसा पर हिंसा हावी हो गई। नेकी और बदी की लड़ाई में बदी की जीत हुई। महात्मा गांधी के बरक्स नाथूराम गोडसे को स्थापित कर दिया गया। नतीजा सामने है।
आज भारत में, महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे का महिमागान करने वाले लोग, हत्या की पैरवी करने वाले लोग, जाति, नस्ल, धर्म और घृणा से भरे राष्ट्रवाद को देशभक्ति से ऊपर रखने वाले लोग, संसद से जनता का अभिवादन कर रहे हैं। संविधान को अमल की नहीं, पूजा की वस्तु बना रहे हैं। संविधान को प्रणाम कर रहे हैं। संसद की सीढ़ियों पर माथा टेक रहे हैं। इन सबके बीच मुझे शेक्सपियर के अमर पात्र मार्क एंटोनियो की कालजयी पुकार सुनाई देती है:
थ्वत ठतनजने पे ंद ीवदवनतंइसम उंदय
ैव ंतम जीमल ंससए ंसस ीवदनवतंइसम उमद दृ
मार्क एंटोनियो ने रोमन सम्राट जूलियस सीज़र की लाश के सामने हत्यारे ब्रूटस और उसका साथ देने वाले
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दूसरे जघन्य हत्यारों को ‘सम्माननीय भद्रजन’ कहा और रोम की जनता को रक्त से सने हुए भद्रलोक का असली और क्रूर चेहरा दिखाया। ब्रूटस आज भी ज़िन्दा है पूंजीवादी सत्ताधारियों के चेहरों में। क्या इन चेहरों से मुक्ति मिलेगी? क्या पूंजीवादी-साम्राज्यवादी बर्बरता से छुटकारा मिलेगा? जनता शिकार में तब्दील हो चुकी है और बेरहम शिकारी चारो ओर घात लगाए बैठे हैं क्या विधायिका, क्या कार्यपालिका और क्या न्यायपालिका? ‘‘क्या समाजवादी पुनरुत्थान के पक्ष में इन नवउदारवादी दक्षिणपंथी रुझानों पर काबू पाया जा सकता है? और इस अभियान की अगुवाई कौन करेगा?’’2
इन सभी सवालों का सामना माइकल डी येट्स करते हैं और अपने पाठकों को यह भरोसा दिलाते हैं कि ग़रीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी, अन्याय, दमन, शोषण और उत्पीड़न का कारण पूंजीवादी नीति और उन नीतियों को लागू करने के तौर-तरीक़ों में है। सार्वजनिक सेवाओं और संस्थाओं को ख़त्म करने और उन्हें निजी हाथों को सौंप देने में है। सरकार की मदद से किसानों, दलितों, आदिवासियों और ग़रीब-गुर्बों की ज़मीन लूटने और पूंजीपतियों को देने में है। सरकार और पूंजीपतियों की मिलीभगत मंें है। सांठ-गांठ में है। दुनिया भर में अरबों की तादाद में फैले हुए मेहनतकश मज़दूरों, किसानों, औरतों, बच्चों और नौजवानों की बिखरी हुई रोज़गार तलाशती और बेरोज़गारी से जूझती हुई आबादी में है। विभिन्न स्रोतों और कई देशों की सामाजार्थिक राजनीतिक समस्याओं का अध्ययन करते हुए वह इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि, ‘‘आंकड़ों के इस हिसाब-किताब का मक़सद ठीक-ठीक यह बताना नहीं है कि मज़दूर वर्ग कितना बड़ा है। इसके बजाए यह दिखाना है कि किसी ख़ास समय में कई अरब लोग काम कर रहे हैं। श्रम की आरक्षित सेना में है या किसान हैं। अगर उनमें से 20 प्रतिशत को भी संगठित करने का कोई उपाय निकल जाये तो वे निश्चय ही दुनिया को बदल देंगे।’’3
श्रम की विशाल आरक्षित सेना को एकजुट करना, उसे हर तरह के अन्याय के विरुद्ध लड़ाई के लिये तैयार करना आज समाजवाद की सबसे बड़ी ज़रूरत और चुनौती है। निर्मम पूंजीवादी सत्ता और अनैतिक पूंजीवादी समाज श्रमशक्ति की एकता को तोड़ने के लिए बेहयाई और कमीनेपन की सारी हदंे पार कर सकते हैं। माक्र्सवादी चिंतक सामिर अमीन ने सन् 1998 में लिखा था कि, ‘‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र के प्रकाशन के 150 वर्ष बाद एक बार फिर हम एक ऐसे मोड़ पर आ खड़े हुए हैं, जहां पेटू लोग रंगरलियां मना रहे हैं। लेकिन बेलगाम पूंजी की यह क्षणिक जीत पूंजीवाद के लिए कोई नया दैदीप्यमान प्रसारात्मक उभार लेकर नहीं आयी है, बल्कि उसने इसके संकट को और गहरा कर दिया है। अपने शत्रु वर्ग की तात्कालिक कमज़ोरी के चलते पूंजी की हवस निर्बन्ध हो गयी है। इस बात ने पूंजीवादी व्यवस्था की बेहूदगी और अतार्किकता को विस्फ़ोटक तरीक़े से सबके सामने ला दिया है - यह व्यवस्था जिस ग़ैर बराबरी को पालती-पोसती है, वही इसके विस्तार की संभावनाओं को सीमित कर देती है। धनी वर्ग के हाथों उपभोक्ता सामानों और भोज्य पदार्थों की अंधाधुंध बरबादी को प्रोत्साहित करके यह उपभोग को विकृत रूप से बढ़ाती है। दूसरी ओर, बहुसंख्यक जनता और मज़दूर वर्ग को उनकी ग़रीबी से राहत दिलाने के लिए यह कुछ नहीं करती, बल्कि इसके लिए उन्हें ही दोषी ठहराती है जो इस शोषणकारी व्यवस्था में अब पहले से भी कम सफलता के साथ समाहित हो रहे हैं। इस तरह पूंजीवाद, अपनी अंतर्गति से उन्हें हाशिए पर फेंकता जाता है और केवल संकट-प्रबंधन के लिहाज से ही उनका ख़याल रखता है। लेकिन यह स्थिति केवल तभी तक बनी रहती है, जब तक उसके विरोधी वर्ग की सामाजिक ताक़त का पुनर्गठन नहीं होता। अगर हम कम्युनिस्ट घोषणापत्र को शांत चित्त होकर पढ़ें, तो पूंजी के चिरंतन संकट को बढ़ावा देने वाली उसकी इस विरोधाभासी जीत का सच हमारे सामने उद्घाटित हो जाता है और इसके पीछे का सीधा सा कारण हमारे दिमाग़ में फिर से कौंध जाता है - पूंजीवाद अपने बुनियादी अंतर्विरोधों से छुटकारा पाने में अक्षम है।’’4
पूंजीवाद अपने अंतर्विरोधों से जनता का ध्यान हटाने के लिए, भीतर की सारी गड़बड़ियों को छुपाने के लिए तरह-तरह के नाटक करता है। कभी रोकर, कभी छाती पीट कर, कभी बेचारा बनकर, कभी फ़कीर तो कभी झोलाधारी बनकर और कभी ख़ुद को बलिदान का पात्र बनाकर वह जनता का हमदर्द बनने, उसका रहबर बनने का स्वांग करता है। वह अपने सारे तंत्र को लगातार झूठ बोलने वाली मशीन में तब्दील कर देता है। वह हजा़र-हज़ार मुंहों से दिन-रात अपने अजर-अमर होने की घोषणा करता है और ‘हम ही सही थे, और हम ही सही हैं’ का भौंडा और बेहूदा गाना दिन-रात गाता रहता है। अपने राजनीतिक मैनेजरों और
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गुंडों की किसिम-किसिम के तिकड़मों से वह मसीहाई अंदाज़ में अपने को न्यायसंगत ठहराता है। वह सारी
विभीषिकाओं और असह्य दुखों और विपदाओं को भूल जाने को कहता है। आंकड़ों की बाज़ीगरी से वह साबित करता है कि अर्थव्यवस्था शानदार है, जनता ख़ुश है, आबाद है और सरकार के साथ है। जिस पूंजी की चाकरी में दक्षिणपंथी सरकार लगी हुई है उसके बारे में माक्र्स ने लिखा है कि पूंजी, ‘‘सर से पांव तक, पोर-पोर से ख़ून और गंदगी टपकाती हुई आती है।‘‘5 माइकल डी येट्स भी लिखते हैं कि,‘‘जब पूंजी की प्रशंसा के गीत गाए जाते हैं तो वह इस अहसास का छोटा क़दम होता है कि अगर तुम ‘सफल’ नहीं हो तो यह तुम्हारी ग़लती है।’’6 नोटबंदी के दौरान सैकड़ों निरपराध लोग मर गए तो यह सरकार बहादुर की ग़लती नहीं है, यह उन अभागे और करमजलों की भूल है जो बैंक की लाइन में खड़े-खड़े मर गए। किसको फ़ुरसत और किसको ग़म की उन अभागों की मौत का मातम मनाए। यह शोक-गीत का समय नहीं, पूंजी के प्रशंसा-गीत का समय है। भारत आज पूंजी के प्रशंसा गीत का सबसे बड़ा आडिटोरियम है। पूंजी का भव्य कोरस पूंजीपतियों की रंगशाला में दिन-रात गाया-बजाया जा रहा है। पैसे की क़ीमत जान से भी ज़्यादा हो गई है। वीसा बैंक कार्ड योजना के पूर्व प्रधान डी. हाॅक ने कहा था कि, ‘‘बात यह नहीं है कि लोग पैसे को ज़्यादा महत्व देते हैं, बल्कि यह कि बाक़ी चीज़ों को वे इतना कम महत्व देते हैं, यह नहीं कि वे ज़्यादा लालची हैं, बल्कि उनके अन्दर कोई ऐसा मूल्य नहीं है जो उनकी लालच पर लगाम लगा सके।’’7 पर्यावरणविद रूडोल्फ बहरो ज़ोर देकर कहते हैं कि,‘‘हमारा सामाजिक जीवन इस तरह संगठित है कि जो लोग हाथ से काम करते हैं उनकी चिन्ता भी बेहतरीन कार को लेकर है, ना कि दक्षिणी गोलार्द्ध के झोपड़पट्टियों में रहने वाले लोगों के लिए एक जून की रोटी की या वहां के किसानों के लिए पानी की ज़रूरत की या ख़ुद ही अपनी चेतना बढ़ाने की, अपनी ख़ुद की आत्म-अनुभूति की।’’8
पूंजीवाद ने हमारे जीवन के सभी पक्षों को जकड़ लिया है। वह एक वर्चस्ववादी क्रूर सामाजिक व्यवस्था है। सख़्ती, ज़्ाुल्म और तन-मन पर पूर्ण नियंत्रण ही उसकी कार्यशैली है। वह सभी संस्थाओं को कठोर नियंत्रण में रखता है। वह देखरेख और अतिरिक्त उत्पादन के लिए मज़दूरों पर चैबीसों घंटे निगरानी रखता है। मैनेजमेंट गुरु फ्रे़डरिक टेलर निगरानी के सभी प्रकट और गुप्त साधनों को ‘वैज्ञानिक प्रबंधन’ कहते हैं, और पूंजीपतियों से इसे शीघ्र व्यवहार में लाने की मांग करते हैं। ‘‘...मैनेजर सावधानी से, कभी-कभी कैमरे की मदद से निगरानी करें और कर्मचारी अपने काम को पूरा करने में जितनी गतिविधि करते हैं उनकी अवधि का हिसाब रखें (आज यह काम इलेक्ट्राॅनिक माध्यम से भी किया जा सकता है, बिना मज़दूरों को पता चले कि उन पर निगाह रखी जा रही है)। इस तरह से मालिक ठीक-ठीक यह जान सकते हैं कि उनके भाड़े के मज़दूर क्या करते हैं कैसे करते हैं, और इस तरह से वह सब जान जाते हैं जो पहले केवल मज़दूरों को पता होता था। इसके बाद,कामों की मशीन के मुताबिक फिर से संकल्पना की गई और हर काम के लिए सही-सही आदेशों का एक समुच्चय विकसित किया गया। फिर, जिनको भर्ती किया जाता था, उन्हें मशीन की तरह काम करने के लिए बाध्य किया जाता था। सिर्फ वही करना जो उनसे कहा जाये, यानी कब शुरू करना है, कब आराम करना है, कैसे चलना है, और ऐसे ही दूसरे आदेश। श्रम की सभी कल्पनाएं अब मालिक और उसके मैनेजरों व औद्योगिक इंजीनियरों की मंडली के एकाधिकार में आ गयी। मज़दूर सिर्फ़ आदेश का पालन करते थे।’’’9 जिन संस्थाओं से पूंजीवादी व्यवस्था बनी है, जैसे स्कूल, बाज़ार, अस्पताल, थाना, पुलिस, कचहरी, संसद, विधानसभा आदि सभी पर पूंजी का निरंकुश नियंत्रण है। ‘‘आज जन्म से मृत्यु तक हमारे जीवन का कोई भी हिस्सा या दुनिया का कोई भी हिस्सा शायद ही बचा हो, जहां पूंजी की घुसपैठ न हुई हो।’’10
पूंजी की हवस ने, उसकी घुसपैठ ने आदमी के साथ-साथ ज़मीन, पानी और हवा को भी माल में बदल दिया है। आदमी और प्रकृति अब एक प्रोडक्ट हैं। उन्हें ख़रीदा और बेचा जा सकता है। हर चीज़ बिकाऊ है। दाम दो, और ख़रीद लो। हर चीज़ पर दाम लिखा है। पैसा फेंको, तमाशा देखो। लोक में एक कहावत प्रचलित है, ‘तीन तिगाड़ा, काम बिगाड़ा’! पूंजी, पूजीपति और सरकार यानी कुख्यात तीन ने मिलकर काम बिगाड़ दिया। जीवन बिगाड़ दिया। और तो और देश को भी नहीं छोड़ा, उसे भी बिगाड़ दिया। नोटबंदी को लीजिए, वह पूर्णतः असफल और एक राष्ट्रीय हादसा था, लेकिन उसे जश्न की तरह मनाया गया। बेरोज़गारी, भारतीय जनता पार्टी के पांच साल के शासन में सारे पुराने रिकार्डों को ध्वस्त कर गई। छंटनी,
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बेगारी, कुपोषण, किसानों की ख़ुदकुशी और बड़ी संख्या में ग्रामीण आबादी के शहर की ओर पलायन ने भारत को बेचैन, नाराज़, दुखी और अप्रसन्न देश में बदल दिया। देश के तमाम बड़े बैंक डिफ़ाल्टरों से भर गए। सारे वायदों और सपनों के ध्वंसावशेष पर नए और भगवा भारत की बुनियाद रखी गई। ‘भारत माता की जय’, ‘जय श्रीराम’ और ‘वंदे मातरम्’ के नारों के साथ उग्र ‘राष्ट्रवाद’ की वापसी हुई। बहुत चतुराई, कौशल और धुआधांर विज्ञापन से मोदी सरकार ने राष्ट्रवाद को ‘हिन्द’ू विशेषण से जोड़कर बहुभाषी, बहुजातीय और बहुसांस्कृतिक राजनीतिक, सामाजिक एकता और सार्वभौमिकता पर कस कर प्रहार किया है और एक देश, एक चुनाव और एक संस्कृति का नारा देकर जनता को एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा कर दिया है। एजाज़ अहमद ने एक इण्टरव्यू में कहा था कि,‘‘पूंजीवादी सार्वभौमिकता, जिसे दुनिया का हर बुर्जुआ स्वीकार करता है, के सामने किसी को भी अपने कुछ परिशुद्ध राष्ट्रीय संस्कृति के दायरे में रहने की इजाज़त नहीं है। आप या तो पूंजीवाद विरोधी यानी समाजवादी सार्वभौमिकता का निर्माण करें या पूंजीवादी सार्वभौमिकता को स्वीकार करें।’’11
पूंजीवादी सार्वभौमिकता को स्थापित करने की लड़ाई में पूंजी के प्रतिनिधियों ने धर्म, जाति, भाषा, राष्ट्रीयता, नस्ल और लिंग का इस्तेमाल जनता को बरगलाने और आपस में लडाने में किया। गौ और गौरक्षा के नाम पर उन्होंने भीड़ तंत्र की हिंसा और हत्या को भी समर्थन दिया। इतना ही नहीं उन्होंने जघन्य अपराधियों, हत्यारों, हिस्ट्रीशीटरों और परम धूर्तों को संरक्षण दिया, चुनाव में टिकट दिया और उन्हें संसद और विधानसभाओं में पहुंचाया। अब अपराधी हमारा भविष्य तय करेंगे। हत्यारे हमें शांति और अहिंसा का पाठ पढ़ाएंगे। स्थिति इतनी विकराल और विकट हो चली है कि राजशक्ति यानी विधायिका अब न्यायपालिका से भी टकरा रही है। न्यायपालिका पर राजहित में फैसले करने का दबाव डाला जा रहा है। भारत के प्रधान न्यायाधीश माननीय श्री रंजन गोगोई ने रूस के सोचि में ‘शंघाई कार्पोरेशन आॅर्गेनाइज़ेशन’ में प्रधान न्यायाधीशों की बैठक में कहा कि, ‘‘न्यायपालिका को लोकलुभावन ताक़तों के खि़लाफ़ खड़ा होना चाहिए। साथ ही संवैधानिक रीति-नीति को तहस-नहस होने से बचाना चाहिए।’’ उन्होंने राजग सरकार पर हमला करते हुए सावधान किया कि, ‘‘न्यायपालिका की आज़ादी पर हमला करने वाले लोकलुभावन ताक़तों के प्रति इस संस्था को ख़ुद को तैयार और मज़बूत रखना चाहिए। ...ऐसी ताक़तों के उदय से न्यायपालिका के सामने निष्पक्षता को बचाने की चुनौती पैदा हो गई है। जजों की नियुक्ति राजनीतिक दबाव और प्रभाव से मुक्त होना चाहिए। ... न्यायिक सस्थाओं की स्वायत्तता को बचाने के लिए लोकलुभावन ताक़तों के दबाव से ख़ुद को मुक्त करना होगा।’’12 माननीय न्यायाधीश की चेतावनी बहुत गंभीर और चिंताजनक है। सिर्फ़ न्यायालय की स्वायत्तता ही नहीं, भारतीय रिज़र्व बैंक की स्वायत्तता भी ख़तरे में है। पूर्व गवर्नर डाॅ. रघुराम राजन, और डाॅ. उर्जित पटेल के बाद आर बी आई के डिप्टी गवर्नर डाॅ. विरल आचार्या ने भी अपना कार्यकाल पूरा होने के पहले स्तीफा दे दिया है। अक्टूबर 2018 के एक सार्वजनिक भाषण में ‘‘उन्होंने आर बी आई के रिज़र्व फंड का इस्तेमाल, ग़ैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों पर नियंत्रण और कर्ज़ वितरण की नीतियों पर सरकार की तरफ़ से पड़ते दबाव का उल्लेख किया था। उन्होंने यहां तक कहा था कि अगर इस तरह का हस्तक्षेप चलता रहा तो इसके काफी़ गंभीर परिणाम भुगतने होंगे।’’13 पूंजी और सरकार की मिलीभगत का खेल देखिए, ‘‘सरकार के पास वित्तीय बाज़ारों को प्रभावित और संचालित करने के शक्ति होती है, यहां इसकी कार्रवाइयां ब्याज दर पर दबाव बना कर उसे ऊपर या नीचे कर सकती हैं और पैसा उधार लेना कठिन या आसान बना सकती हैं। सरकारें युद्ध करती हैं। सरकार कुछ भी करे, पूंजी अपनी आर्थिक शक्ति के ज़ोर से टैक्स की ज़िम्मेदारियां सीमित करवा लेती है और जितना संभव हो सके, सरकारी खर्चे हासिल करती है, न्यायाधीशों की नियुक्ति को प्रभावित करती हैं या किसी भी ऐसी चीज़ का विरोध करती हैं जो उसकी सामाजिक शक्ति को चुनौती देती हो।’’14 मोदी सरकार और संवैधानिक लोकतांत्रिक संस्थाओं के बीच चूहा-बिल्ली का खेल पिछले कुछ सालों से लगातार खेला जा रहा है। बिल्ली के गले में घंटी बांधना और लोकलुभावन ताक़तों के खेल को समझना और उनकी मुख़ालिफ़त करना आज के समय की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी है।
पूंजी समर्थित लोकलुभावन ताक़तों ने ही मोदी राज में गाय और गौरक्षा का खेल खेला है। हिन्दू और मुस्लिम का कार्ड खेला है। अली और बजरंग बली को आमने-सामने खड़ा कर दिया है। वरिष्ठ पत्रकार
निरंजन टाकले ने गुजरात के अहमदाबाद और राजस्थान के गांवों में नाम और भेस बदल कर गाय और
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गौरक्षा के खेल का परदाफ़ाश किया है। स्थानीय कसाइयों की मदद से, उनके बीच रफ़ीक़ कु़रैशी के नाम से रहकर उन्होंने तीन-साढ़े तीन महीने तक ग़ैरक़ानूनी पशु बाज़ार की गहरी पड़ताल की है और राजस्थान से लेकर गुजरात तक फैले पशु-बाज़ार के भ्रष्टाचार और उसके हिंसक राजनीतिक दुरुपयोग की पोल खोली है। उनके मूल्यवान और डरा देने वाले अनुभव को कुछ बिन्दुओं में इस तरह समेटा जा सकता है;
- गौरक्षा सिर्फ़ एक बिज़नेस माॅडल है।
- बजरंग दल इस नेटवर्क का संचालन करता है।
- गाय के एक ट्रक का शुल्क 14,500 रुपये से लेकर 15,000 रुपये तक है।
- भैंस का ट्रक 6,500 रुपये।
- पाड़े का ट्रक 5,000 रूपये।
- पशु व्यापारियों को चमड़ा मुफ़्त में अवैध शुल्क वसूलने वाले बजरंग दल को देना पड़ता है।
- मुफ़्त में मिले चमड़े का बड़े पैमाने पर कारोबार किया जाता है।
- अवैध पशु व्यापार के एक चेकपोस्ट का कलेक्शन प्रतिदिन लगभग डेढ़ करोड़ रुपयों का होता है।
- पशु व्यापारियों को डराने के लिए बीच-बीच में गुण्डे बेगुनाह लोगों को मारते रहते हैं।
- हत्या सिर्फ़ इसलिए की जाती है कि व्यापारियों के बीच डर बना रहे और धंधा चलता रहे।
- इस व्यापार का इन्वेस्टमेंट डर है। यह डर मूलतः फ़ासिज़्म का इन्वेस्टमेंट है।
- नोटबंदी ने लोगों को डराया और आर्थिक रूप से घुटनों के बल बैठने को मजबूर कर दिया था।
- आर्थिक आधार पर जब कोई इन्सान घुटनों के बल गिरता है तो वह किसी भी फ़ासीवादी हुक्म को मानने के लिए तैयार हो जाता है।15
राष्ट्रवाद इसी डर का प्रोडक्ट है, जिसे पूंजीवाद अपने और अपने आकाओं के हित के लिए इस्तेमाल करता है। ग़ौरतलब है कि दक्षिणपंथी सरकारें अपनी असफलता छुपाने के लिए, बेरोज़गारी, बेगारी, कंगाली, भुखमरी और जनता के असंतोष और बेकाबू क्रोध पर झूठ का परदा डालने के लिए राष्ट्रवाद की शरण में चली जाती हैं। यह अचानक नहीं होता कि राष्ट्रध्वज सैकड़ों फीट ऊपर हवा में लहराने लगता है। छातियां देशप्रेम के नारों से भर उठती हैं। देश-प्रदेश में बाप-दादा के ज़माने से संग-साथ रहने वाला, सुख-दुःख, राग-रंग में हाथ बंटाने, आज़ादी की लड़ाई में जान देने वाला भारतीय मुसलमान ‘विदेशी’ लगने लगता है, घुसपैठिया हो जाता है। उसे अपनी देशभक्ति और भारतीयता प्रमाणित करनी पड़ती है। देश की सीमाओं पर एकाएक हलचलें बढ़ जाती हैं। युद्धपोत पानी में उतर आते हैं। टोही और युद्धक विमान की आवाजाही आसमान में बढ़ जाती है। गोलियां चलती हैं, बम फटते हैं और फौजियों के ख़ून से धरती रंग जाती है। इन्हीं विषम और जटिल परिस्थितियों में संकीर्ण और कट्टर राष्ट्रवाद सक्रिय होता है और देश के नाम पर, फौजियों की शहादत के नाम पर सत्ताधारी दल अपने सारे घपलों, गड़बड़ियों, भ्रष्टाचार और वायदाखि़लाफ़ी पर देशप्रेम का गाढ़ा रंग चढ़ा देता है। विकास, तरक्की और देश की ख़ुशहाली के सारे सवाल, सारे डर व्यक्तिवाची वाक्यों में दम तोड़ देते हैं। 17हवीं लोक सभा के चुनाव का एक ऐसा ही वाक्य है, ‘घर में घुस कर मारूंगा!’ माइकल डी येट्स ने भी अपनी किताब में भाषा और मनुष्यता को तार-तार कर देने वाले नरेन्द्र मोदी के ऐसे ही कुछ वाक्यों की याद दिलाई है। 2002 के गुजरात दंगों में लगभग 2000 जाने गई थीं। तब के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रतिक्रिया थी कि ‘‘रक्तपात के बाद वैसी ही पीड़ा महसूस की थी जैसी किसी कार में बैठे यात्री को किसी कुत्ते के पिल्ले को कुचले जाते देखकर होती है।’’ दो लाख मुसलमानों के राहत शिविरों पर उनकी टिप्पणी थी, ‘‘बच्चा बनाने की फैक्ट्री।’’16 उग्र पूंजीवाद और कट्टर असहनशील राष्ट्रवाद के फासीवादी दौर में भाषा भी दमन, शोषण और आक्रमण का हथियार हो जाती है। इस हथियार का बख़ूबी इस्तेमाल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रवाद के नाम पर किया।
राष्ट्रवाद पूंजीवादी सरकारों का अचूक हथियार है और एक ऐसी ढाल भी जिसके पीछे छुप कर वादे तोड़े जा सकते हैं, आंखों में धूल झोंकी जा सकती है, देशभक्ति का जुनून पैदा किया जा सकता है। होश को, जोश से ग़ायब किया जा सकता है और तर्क को, न्याय को जुमलों और नारों से मारा जा सकता है। तभी तो भारत और पाकिस्तान के बीच खेला जा रहा क्रिकेट मैच दो मुख़्तलिफ़ टीमों का मैच नहीं बल्कि दो
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देशों का युद्ध हो जाता है। खिलाड़ियों का फौजी कैप पहनना, फौजी चिन्हों से जुड़े दास्ताने पहनना, राष्ट्रध्वजों का लहराना, छाती पीट कर चिल्लाना, उन्माद और बर्बर देह भंगिमा के बीच भाषा और मनुष्यता ही नहीं मरती, कहीं न कहीं थोड़ा सा देश भी मर जाता है। ज़रा स्टेडियम में गूंज रही आवाज़ों को सुनिए और समझिए, ‘तुम इन्हें मैदान में पीटो, हम उन्हें बाॅर्डर पर मारेंगे!’ और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व अध्यक्ष और वर्तमान में गृह मंत्री अमित शाह का ट्वीट देखिए जो उन्होंने क्रिकेट वल्र्ड कप 2019 के एक लीग मैच में पाकिस्तान पर भारत की जीत पर किया था, ‘‘।दवजीमत ेजतपाम वद च्ंापेजंद इल जमंउ प्दकपं ंदक जीम तमेनसज पे ेंउमण्’’ उन्होंने भारतीय टीम की जीत को ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ से जोड़ दिया। खेल को उन्होेंने युद्ध से जोड़ दिया। खेल के रोमांच और प्रतिस्पद्र्धा को उन्होंने मरने-मारने से जोड़ दिया। मरने-मारने का खेल आज अबाध गति से पूरी दुनिया में खेला जा रहा है। राष्ट्रवाद की इस मारक और विनाशक शक्ति पर माइकल डी येट्स की टिप्पणी है, ‘‘...राष्ट्रवाद का प्रमाण तब प्रकट होता है जब कोई राष्ट्र युद्ध में उतरता है। तुरंत ही ज़्यादातर लोग और संगठन, यहां तक कि मज़दूर यूनियनें भी आंख मूंद कर समर्थन देती हैं। झंडा लहराना, राष्ट्रभक्ति की क़समें खाना, खेल के मैदान में राष्ट्रगान गाना, इस शक्ति के प्रचुर उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।’’17 युद्ध और युद्ध का भय जनता को आज की समस्याओं से दूर ले जाता है, उन्हें यथार्थ और सच से दूर कर देता है।
माक्र्स और एगेल्स ने ‘कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र’ में लिखा है कि, ‘‘आधुनिक राजसत्ता के कार्यकारी, समस्त पूंजीपतियों के आम मामलों का प्रबंधन करने वाली कमेटी के अलावा कुछ नहीं है। ... पूंजीवादी समाजों में सरकार की तयशुदा अवस्थिति पूंजी के हितों की सेवा करना है।’’18
पूंजी का हित सधता रहो, शोषण, बेदखली और श्रम का अबाध दोहन चलता रहे इसके लिए पूंजीपति समाज के मलाईदार तबकों और सरकार के साथ सांठ-गांठ कर जीवन के हर हिस्से पर सांप की तरह कुंडली मार कर बैठ जाता है। समाज के हर संस्थान पर वह अपना क़ब्जा और वर्चस्व कायम करता है। राजसत्ता से लेकर स्कूल तक उसी का राज चलता है। उसके नियम-क़ायदे में ज्ञानमीमांसीय परंपरा, सभ्यता, संस्कृति और तर्क का कोई मूल्य नहीं होता। उसके लिए सिर्फ़ एक पाठ ज़रूरी है किसान, मज़दूर, प्रकृति और महिलाओं का अंतहीन शोषण और पूंजी का अखंड प्रवाह। वह पूरे समाज को अबौद्धिक सोच और टुच्चे व्यवहार से भर देता है। मुजफ़्फ़रपुर में चमकी रोग से सैकड़ों बच्चे दवा और इलाज के अभाव में मर जाते हैं और सोशल मीडिया पर राजनेता एक क्रिकेटर के घायल हो जाने पर तड़प उठते हैं। उसके शीघ्र स्वस्थ होने की दुआ करते हैं। उन्मादी भीड़ जय श्रीराम और भारत माता की जय के नारों के बीच तबरेज़ अंसारी की पीट-पीट कर जान ले लेती है लेकिन पत्ता तक नहीं खड़कता, एक भयानक चुप्पी चारो ओर छा जाती है। महान् चिंतक और साहित्यकार लू शुन की एक गद्य कविता की झकझोर देने वाली पंक्तियां हैं, ‘‘अचानक मेनड्रेक के फूल मुरझा गये। तेल के कड़ाहे फिर खदबदाने लगे, तलवार की धार फिर पहले की तरह ही तेज़ हो गयी, पहले की तरह ही आग की लपटें उठने लगीं और भूत-प्रेत पहले की तरह ही तड़पड़ाने और विलाप करने लगे, क्योंकि अब उन्हें खोये हुए नरक को लेकर पश्चाताप करने की फुरसत ही नहीं थी।’’19
यह मनुष्यता पर भारी पड़ते, जीते-जागते नरक और अट्टहास करते भूत-प्रेतों का समय है। मानवीय श्रम और परिष्कार से मुक्त वित्तीय पूंजी का समय है। प्रखर माक्र्सवादी चिंतक राजेश्वर सक्सेना ने बिल्कुल ठीक लक्ष्य किया है कि, ‘‘पुराने सामंतवादी युग की एक कहावत है कि ‘शेर की पूंछ बनने से अच्छा है गधे का सिर हो जाना।’ आज के नव सामन्तवादी युग में इसका अर्थ बदल गया है। अब शेर की पूंछ बनना भी एक प्रैग्मैटिक (उपयोगितावादी) विशेषता है और गधे का सिर बनना भी एक प्रैग्मैटिक विशेषता है। दोनों ही लाभ के विश्वास के अनुरूप हैं। अमेरिका की पूंछ बनना लाभकर है, कारपोरेट सेक्टर के साथ अनुकूलन लाभकर है, इसी तरह नेता, नौकरशाह और डाॅन की जी-हजूरी करना लाभकर है।’’20 हाल ही मेें जापान के ओसाका से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का एक बयान आया है, ‘जापान, अमेरिका और इण्डिया का मतलब श्श्र।प्श् (जय) यानी जीत है।’ जापान के श्रए अमरीका के ।ए भारत के प् को जोड़कर बना श्श्र।प्श् (जय)। जय किसकी? जीत किसकी? जी-20 समिट में शामिल 20 शक्तिशाली अर्थव्यवस्था वाले देशों में दुनिया की 75 प्रतिशत आबादी रहती है। 85 प्रतिशत जीडीपी इन्हीं देशों के पास है। 75 प्रतिशत ग्लोबल ट्रेड और 80 प्रतिशत
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ग्लोबल इन्वेस्टमेंट पर इन्हीं देशों का क़ब्जा है। यानी जय, ग़रीब-गुर्बों, शोषित किसान, मज़दूर और बेहाल उत्पीड़ित महिला शक्ति की नहीं बल्कि जय हो पूंजी की! जय पूंजीवाद की! अमरीकी प्रेसीडेण्ट डोनाल्ड ट्रंप से मोदी जी का बहुत याराना है, बिल्कुल बराक ओबामा की तरह। ये वही ट्रंप महोदय हैं जिन्होंने पूंजी और कारपोरेट हित के लिए सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान की दोस्ती क़ुबूल की और जांबाज़ और दिलेर पत्रकार खशोगी की निर्मम हत्या को भुला बैठे। सऊदी अरब के जिन हत्यारों को वे धमका रहे थे, दण्ड दिलाने की बात कर रहे थे, उसी के मास्टरमाइण्ड से हाथ मिला बैठे। ये है पूंजी का जादू और बाज़ार का मायाजाल।
इस जादुई मायाजाल से न जनवाद बच सका, न लोकतंत्र और न ही चुनाव। भारत के पिछले दो लोक सभा चुनावों में मतदाताओं ने सामाजिक जनवादियों, वामपंथियों और धर्मनिरपेक्ष ताक़तों को लगभग बाहर का रास्ता दिखा दिया। माइकल डी येट्स ने जाॅन बेलामी फ़ाॅस्टर की बहुचर्चित किताब ‘ट्रंप इन व्हाइट हाउस: ट्रेजडी एण्ड फ़ार्स’ के हवाले से लिखा है कि, ‘‘धुर दक्षिणपंथी, प्रवासी विरोधी, नव फ़ासीवादी ऐसी पार्टियों ने चुनाव में कामयाबी पायी जिनके बारे में अब से बीस साल पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। फ़ासीवादीनुमा नेता और कुछ मामलों में पूरी तरह नाज़ी आज इटली, आस्ट्रिया और पुराने सोवियत खेमे के ज़्यादातर देशों की मुख्यधारा में हैं। यहां तक कि स्कैन्डिनेविया मंे भी सामाजिक जनवादियों ने लगातार अपने वोट गंवाये हैं, हालांकि अभी तक वहां निष्ठुर नवउदारवाद ने पांव नहीं जमाया है। अमरीका में सारा देश इस हद तक राजनीतिक अलगाव और क्रूरता का शिकार है कि डोनाल्ड ट्रंप जैसा घिनौना, अपराधी और अनपढ़ राष्ट्रपति बन गया।’’23
संसद और विधानसभा बहुत हद तक अब अपराधियों की शरणस्थली बन चुके हैं। बेइन्तहा पूंजी बेईमान बनाती है और पूंजीवाद चोर। पूंजीवाद जन्म से ही ज़मीन की चोरी करता रहा है। चोरी पूंजीवाद का नारा है। इतिहास साक्षी है कि पूंजीवाद को चुनौती देने की ताक़त और उसे पराजित करने का हौसला मज़दूर वर्ग के पास है। रूसी, चीनी, वियतनामी और क्यूबा की क्रांति ने समाजवादी समाज की नींव रखी थी। एक कम्युनिस्ट माॅडल की रूपरेखा रखी थी। समाजवादी क्रांति को किसान-मज़दूर एकता ने ही सफल बनाया था। मज़दूर यूनियनों ने लगातार लड़ते और मरते-खपते हुए मज़दूर को, भूमि को जोतने वाले किसानों को, घर और घर से बाहर दिन-रात काम करने वाली मेहनतकश औरतों को सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार दिलाया था। यूनियनों ने कई मूल्यवान उपलब्धियां हासिल की हैं। उपलब्धियों का पूरा ब्योरा माइकल डी येट्स बहुत शोध और अथक परिश्रम से लिखी गई अपनी किताब ‘क्या मज़दूर वर्ग दुनिया को बदल सकता है?’ में तथ्यों की प्रामाणिकता के साथ देते हैं। उन्होंने भारत के साथ अमेरिका, चीन, जापान, क्यूबा, वियतनाम, इंग्लैण्ड, फ्रांस, जर्मनी, लैटिन अमरीकी, दक्षिण अफ्रीकी और अन्य यूरोपीय देशों में हुई हड़तालों की पड़ताल करते हैं और मज़दूर यूनियनों और उनके राजनीतिक संगठनों की सफलता-असफलता का वैज्ञानिक विवेचन करते हैं। श्रम शक्ति और श्रमिकों के अतीत और वर्तमान का द्धंद्धात्मक लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हैं। उनके अध्ययन, विमर्श और निष्कर्ष को जानने और समझने के लिए पुस्तक को मनोयोग से पढ़ा जाना ज़रूरी है। संक्षेप में कुछ बातों को रेखांकित किया जा सकता है:
- मज़दूर यूनियनें पूंजीवादी उत्पीड़न के खि़लाफ़ मज़दूर वर्ग की एक सर्वव्यापी प्रतिक्रिया है।
- मज़दूर संगठनों ने कार्यस्थल के भीतर और समाज में भी मज़दूरों द्वारा झेली जा रही परिस्थितियों में काफ़ी अंशों में प्रभावशाली बदलाव किये हैं।
- ऊंची मज़दूरी हासिल की। स्वास्थ्य देखभाल, पेंशन, काम की बेहतर परिस्थितियां भी हासिल हुई।
- यूनियनों ने भर्ती, प्रोन्नति, छंटनी, अनुशासन, मशीन लगाने, काम की रफ़्तार और प्लाण्ट बंदी पर मालिकों के नियंत्रण को कम किया।
- यूनियनों ने मज़दूर, किसान और महिला श्रमिक वर्ग को वर्ग चेतन, जागरूक और जुझारू बनाया।
माइकल डी येट्स एक बहुत महत्वपूर्ण तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट करते हैं कि ‘‘दक्षिणी गोलार्ध के भीतर मज़दूर वर्ग और किसानों की एक उत्कृष्ट उपलब्धि, चाहे समाजवादी क्रांति करने वाले देश हों या न कर पाने वाले, दोनों ही तरह के देशों द्वारा उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद पर किया गया हमला है। जनता के
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जीवन में भारी बदलाव लाने से पहले उन देशों में उपनिवेशवाद की जकड़बंदी को तोड़ना और साम्राज्यवाद को कम से कम कमज़ोर कर देना ज़रूरी था। दुनिया के कंगाल बना दिये गये तमाम देशों के मज़दूरों और किसानों ने यह काम पूरा किया।’’21
काम तो पूरा ज़रूर हुआ लेकिन संसार भर के कम्युनिस्ट आंदोलन उसे अपनी मुटठी में नहीं रख सके। उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद को कस कर धक्का लगा, वे कुछ क़दम पीछे भी हटे, कुछ समझौते भी किए लेकिन उन्होंने पलट कर ज़बर्दस्त हमला किया। साम-दाम-दण्डभेद से उन्होेंने मज़दूर-किसान एकता को तोड़ा, उनके संगठनों में फूट पैदा की और वामपंथी मज़दूर यूनियनों और उनके राजनीतिक संगठनों ने शोषकों से जो हासिल किया था, उसका बहुत कुछ फिर से छीन लिया। सोवियत संघ ध्वस्त हुआ तो समाजवादी विचार-दर्शन के साथ समाजवादी अर्थशास्त्र भी कमज़ोर पड़ा। किसान और मज़दूर कम्यून नष्ट कर दिये गए। सहकारिता की भावना विलुप्त हो गई। साथ-साथ जीने का सिद्धांत और प्रकृति को जननी मानने का पवित्र विचार पूंजी के मुनाफ़े की किताब में दफ़्न हो गये। जननी और जन्मभूमि भी पूजा और प्रार्थना के उच्च आसन से गिर कर ‘वस्तु’ में, प्रोडक्ट में तब्दील हो गये। ज़मीन अब जोतने वालों की नहीं रही, जननी यानी मातृसत्ता भी पितृसत्ता की अवैतनिक ग़्ाुलाम बना दी गई। घर संभालने वाली और दिन-रात काम करने वाली महिलाओं के श्रम को हिकारत की निगाह से देखा गया। उनके कामों के मूल्य का आकलन सकल घरेलू उत्पाद में शामिल तक नहीं किया गया। ‘‘भारत में घर संभालने वाली महिलाओं के हालात जो उस देश में महिलाओं के हालात का आईना हैं, इतने ख़राब हैं कि 1997 के बाद से हर साल 20,000 से ज़्यादा घरेलू महिलाओं ने आत्महत्या की।’’22 स्त्री और पुरुष के बीच सोच और व्यवहार में इतनी असमानता, ग़ैरबराबरी और ऊंच-नीच का भेदभाव है कि स्त्री कितनी भी ऊंचाइयां छू ले, कितनी भी शक्ति अर्जित कर ले, उसे कमतर, कमज़ोर, दयनीय और भोग्या ही माना जाता है। पुराने ज़माने में व्यभिचार के मामले में केवल स्त्री दोषी क़रार दी जाती थी और पुरुष बेदाग निकल जाता था। ऐसी अभागी स्त्रियों को मौत की सज़ा दी जाती थी। हत्या को उत्सव की तरह मनाया जाता था। पुरोहित धर्मग्रंथ हाथ में लेकर हत्यारों की अगुवाई करता था। आज भी सेक्स के नाम पर औरत की इज़्ज़्ात से खिलवाड़ किया जाता है। उसे सार्वजनिक रूप से अपमानित और दण्डित किया जाता है। ‘मी टू’ आंदोलन ने इस बात से परदा हटा दिया कि सेलीब्रेटी और एलीट क्लास की कामयाब और संपन्न औरतें भी दैहिक शोषण और अनाचार से मुक्त नहीं हैं। उनके शरीर और उनकी आत्माओं पर वैसा ही हमला किया जाता है, जैसा हमला कार्यस्थल पर, घर में, समाज में निम्न, मध्य एवं मज़दूर वर्ग की स्त्रियों पर किया जाता है। माक्र्स-एंगेल्स ने ‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र’ में लिखा है कि, ‘‘ हमारे पूंजीपतियों को मज़दूरों की बहू-बेटियों को अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ इस्तेमाल करने से संतोष नहीं होता, वेश्याओं से भी उनका मन नहीं भरता, इसलिये एक दूसरे की बीवियों पर हाथ साफ करने में उन्हें विशेष आनन्द प्राप्त होता है।’’23 एक चरम पितृसत्तात्मक समाज में मनुष्य की देह, प्रकृति और धरती भी उत्पादन के एक औजार के सिवा कुछ नहीं है। पूंजी शरीर के साथ धरती और प्रकृति को भी बेदखल करती है। उन्हें अपने नियंत्रण में रखती है। भारत और दुनिया में लगातार छल-बल से किसानों से ज़मीनें छीनी गयीं। ज़मीनों की विराट पटिट्यों से करोड़ों किसान बेदख़ल कर दिए गये।
शोषण, बेदखली और बड़े पैमाने पर रिश्वतबाज़ी पूंजीवाद के बहुत कारगर हथियार हैं। इन हथियारों से पूंजी के समर्थकों ने सबसे पहले मज़दूरों में जाति, नस्ल, भाषा और धर्म के नाम पर फूट डाली। एक जाति को दूसरी जाति से लड़ाया। मज़दूर वर्ग को उत्पीड़ित और उत्पीड़क देशों के मज़दूरों में बांट दिया। गोरे और काले में बांट दिया। काॅमरेड इंद्रजीत गुप्त ने भारतीय वाम दलों के पिछड़ने का एक बड़ा कारण जातिवाद और जातियों के आपसी संघर्ष को माना था। कम्युनिस्ट पार्टियों ने भारत में जाति के मुद्दे को गंभीरता से समझने का ज़रा भी प्रयास नहीं किया। उन्होंने भारतीय ट्रेड यूनियनों को बड़ी ताक़त माना था लेकिन यह भी कहा था कि लाल झंडा उठाकर बोनस और तनख़्वाह के लिए साथ-साथ लड़ने वाले लोग चुनाव के दौरान वर्ग संघर्ष भूलकर अपनी जाति-बिरादरी की ओर देखने लगते हैं। एशियाई और यूरोपीय देशों में गोरे और काले मज़दूरों में भेदभाव किया गया। उनके दिमाग़ों को नस्लवाद के ज़हर से भर दिया गया। प्रवासियों के साथ तो भयानक दुव्र्यवहार किया गया और आज भी किया जाता है। पितृसत्ता के नाम
पर स्त्रियों के साथ पैशाचिक बर्ताव किया गया। यूनियनों के पदाधिकारियों में स्त्रियों की उपस्थिति नहीं के
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बराबर पहले भी थी और आज भी है। पूंजीवाद ने मज़दूरों की एकता और सहजीविता को तोड़ने के लिए एक और खेल खेला। ‘मज़दूर-मैनेजमेंट गठजोड़’ का खेल। इस खेल से भी यूनियन पदाधिकारियांे को पैसे और सुख-सुविधा का व्यक्तिगत लाभ देकर उन्हें मज़दूर वर्ग से दूर कर दिया। उनके ‘मंै’ की तुष्टि की गई, और उन्हें ‘हम’ से अलग कर दिया। समूह पर व्यक्ति को प्रमुखता दी गई। कई उदाहरण देकर माइकल डी येट्स इस खेल से परदा उठाते हैं। वह याद दिलाते हैं कि अमरीकी चुनाव में ओबामा और हिलेरी क्लिंटन जो ओबामा से भी ज़्यादा पूंजीपरस्त थीं, उन्हें अमरीका के मज़दूर यूनियनों का समर्थन मिला। यूनियन ने बर्नी सेन्डर्स से भी कन्नी काट ली, जो एक वाम उदारवादी थे। अमेरिका की डेमोक्रेटिक पार्टी हो, ब्रिटेन की लेबर पार्टी हो, भारत की कम्युनिस्ट पार्टियां हों, इन्होंने बहुत पहले से ही मज़दूर वर्ग के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को त्याग दिया था। लेखक ज़ोर देकर दृढ़ता से कहता है कि, ‘‘मज़दूर-प्रबंधक सहकार को तुरंत और हमेशा के लिये ख़ारिज किया जाना चाहिए और इसकी जगह विरोधात्मक संबंध कायम होना चाहिए जिसमें प्रबंधन को कोई छूट न दी जाती हो।’’24
शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार सभी नागरिकों का जन्मसिद्ध अधिकार है। दक्षिणपंथी सरकारों ने इन तीनों संवैधानिक अधिकारों को पूंजीपतियों की जेब में डाल कर उनके लिये अकूत मुनाफे का राजद्वार खोल दिया है। क्यूबा की क्रांति ने एक आदर्श वाक्य हमें दिया है कि, ‘‘सीखते हुए उत्पादन करो, उत्पादन करते हुए पढ़ाओ और पढ़ाते हुए सीखो।’’25 उत्पादन का लक्ष्य ज़रूरतें पूरी करना है, तिजोरी भरना नहीं। तिजोरी भरने की हवस ने इन्सान और प्रकृति को बरबादी के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है। धरती का शोषण इतना ज़्यादा हुआ है कि धरती डाइनामाइट में बदल चुकी है। खेत धरती की कोख हैं। अन्न का भंडार। अन्नदाताओं ने धरती की कोख को हमेशा हरा-भरा और तंदुरुस्त रखा था। वह धरती से, प्रकृति से जितना लेते थे, उतना उसे लौटा भी देते थे। यह लेन-देन साहुकार और ग्राहक की तरह नही था। रुपया और सामान की तरह नहीं था। यह मां-बेटे का संबंध था। ममता, प्रेम और सम्मान का संबंध था। इस जैविक और आदिम संबंध को तोड़ दिया गया। अब खेत तरह-तरह के विषैले रसायनों और जानलेवा पेस्टीसाइड से लबालब भर गए हैं। नदियां फैक्ट्री और उद्योगों से दिन-रात निकलने वाले भयानक प्रदूषित पदार्थों को सोखते हुए धीरे-धीरे सूख रही हैं, मर रही हैं। धुएं और जहरीली गैसों ने हवा में आॅक्सीजन की मात्रा कम कर दी है और धरती के तापमान को असहनीय बना दिया है। आज दुनिया की बड़ी आबादी शुद्ध पानी और साफ हवा के लिए तरस रही है। भारत में पिछले 10 सालों में 4500 नदियां सूख गईं और 20 लाख तालाब, कुएं और झीलें विलुप्त हो गईं। नीति आयोग की रिपोर्ट बताती है कि 2030 तक देश के 40 प्रतिशत लोगों को पीने का पानी नहीं मिल पायेगा। पूंजी ने तकनाॅलाॅजी और साम्राज्यवादी उपायों का प्रयोग कर मिट्टीको बंजर बना दिया। अपने लालच और धन संचय के लिए ज़मीन, पानी और हवा को न सिर्फ बेचा और ख़रीदा बल्कि उसे बीमार, जरासीम से भरा हुआ और जानलेवा बना दिया। पूंजी ने अपने मुनाफ़े के लिए पूरी धरती और मनुष्य जाति को भारी संकट में डाल दिया है। ज़मीन, पानी, अन्न और हवा के बिना मनुष्य जीवित नहीं रह सकता। जीवन देने वाले सारे संसाधनों पर पूंजी और पूंजीवादी सरकारों का कब्ज़ा है। इनसे लड़ना होगा, जूझना होगा और सारे संसाधनों को निजी जकड़बंदी और कैद से मुक्ति दिला कर उन्हें सार्वजनिक बनाना होगा। निजी संपत्ति को जनता की संपत्ति बनानी होगी। ‘मैं’ को हटाना होगा और ‘हम’ को सामने लाना होगा। ‘‘मैं के खि़लाफ़ और हम के लिए अपनी लड़ाई छेड़नी होगी।’’26
दुनिया को बदलने की लड़ाई में लगे हुए लोगों के लिए माइकल डी येट्स की किताब ‘क्या मज़दूर वर्ग दुनिया को बदल सकता है?’ एक ज़रूरी किताब है। घुप्प अंधेरे में रौशन चराग़ की तरह। हिन्दी अनुवाद दिगम्बर ने बहुत दिल लगाकर किया है। भाषा सहज, चुस्त और सटीक है। जाने माने अर्थशास्त्री और ‘मंथली रिव्यू’ के एसोसिएट एडीटर माइकल डी येट्स की सैद्धांतिक और विचारनिष्ट किताब को अनुवादक ने ज़रा भी बोझल और उबाऊ नहीं होने दिया है। इसके लिए मूल लेखक और अनुवादक दोनों को हार्दिक धन्यवाद।
संदर्भ:
1. क्या मज़दूर वर्ग दुनिया को बदल सकता है?, माइकल डी येट्स, अनुवाद: दिगम्बर, प्रथम हिन्दी संस्करण जनवरी 2019, गार्गी प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ 14।
2. उपर्युक्त, हिन्दी संस्करण की भूमिका, प्रो. चमन लाल, पृष्ठ 7।
3. उपर्युक्त, मज़दूर वर्ग, अध्याय 1, पृष्ठ 20।
4. इतिहास जैसा घटित हुआ, संकलनकर्ता: बाॅबी एस. ओरतिज, तिलक डी. गुप्ता, पूंजीवाद की प्रेतछाया, सामिर अमीन, गार्गी प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ 298।
5. क्या मज़दूर वर्ग दुनिया को बदल सकता है?, माइकल डी येट्स, अनुवाद: दिगम्बर, प्रथम हिन्दी संस्करण जनवरी 2019, गार्गी प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ 72।
6. उपर्युक्त, पृष्ठ 70।
7. इतिहास जैसा घटित हुआ, संकलनकर्ता: बाॅबी एस. ओरतिज, तिलक डी. गुप्ता, वैश्विक पारिस्थितिकी और लोक हित, जाॅन बेलामी फ़ोस्टर, गार्गी प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ 269।
8. उपर्युक्त, पृष्ठ 269।
9. क्या मज़दूर वर्ग दुनिया को बदल सकता है?, माइकल डी येट्स, अनुवाद: दिगम्बर, प्रथम हिन्दी संस्करण जनवरी 2019, गार्गी प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ 64।
10. क्या मज़दूर वर्ग दुनिया को बदल सकता है?, माइकल डी येट्स, अनुवाद: दिगम्बर, प्रथम हिन्दी संस्करण जनवरी 2019, गार्गी प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ 62।
11. संस्कृति, राष्ट्रवाद और बुद्धिजीवियों की भूमिका, एजाज़ अहमद, इतिहास के पक्ष में, जाॅन बेलेमी फ़ाॅस्टर, इलेन मिकासिन्स वुड, अनुवादक: तरुण कुमार, ग्रंथ शिल्पी, दिल्ली, प्रथम संस्करण 2007, पृष्ठ 73।
12. नई दुनिया दैनिक, बिलासपुर 20 जून 2019, पृष्ठ 10।
13. नई दुनिया दैनिक, बिलासपुर 20 जून 2019, पृष्ठ 01।
14. क्या मज़दूर वर्ग दुनिया को बदल सकता है?, पृष्ठ 90।
15. निरंजन टाकले, यू ट्यूब।
16. क्या मज़दूर वर्ग दुनिया को बदल सकता है? पृष्ठ 79।
17. क्या मज़दूर वर्ग दुनिया को बदल सकता है?, पृष्ठ 72।
18. क्या मज़दूर वर्ग दुनिया को बदल सकता है?, पृष्ठ 54।
19. सुन्दर नरक जो ग़ायब हो गया था, जंगली घास, लू शुन, अनुवाद: दिगम्बर, प्रथम हिन्दी संशोधित संस्करण 2019, गार्गी प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ 33।
20. विज्ञान का दर्शन: फ्रेडरिक एंगेल्स का योगदान, राजेश्वर सक्सेना, प्रथम संस्करण 2018, नयी किताब प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ 120।
21. क्या मज़दूर वर्ग दुनिया को बदल सकता है?, पृष्ठ 100।
22. उपर्युक्त, पृष्ठ 30।
23. कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र, माक्र्स-एंगेल्स, प्रगति प्रकाशन मास्को, पृष्ठ 59।
24. क्या मज़दूर वर्ग दुनिया को बदल सकता है?, पृष्ठ 147।
25. उपर्युक्त, पृष्ठ 139। 26. उपर्युक्त, पृष्ठ 129।
समीक्ष्य कृति: क्या मज़दूर वर्ग दुनिया को बदल सकता है?
कृतिकार: माइकल डी येट्स अनुवाद: दिगम्बर
प्रकाशक: गार्गी प्रकाशन, शाहदरा, दिल्ली
हिन्दी संस्करण: प्रथम, 2019 मूल्य: 120.00
संपादक: साम्य, ब्रह्म रोड, अम्बिकापुर, जिला: सरगुजा (छत्तीसगढ़), पिन 497 001
मोबाइल: 098261-25253