'क्या मजदूर वर्ग दुनिया को बदल सकता है?' अपने इस प्रश्न का उत्तर माइकल डी येट्स 'हाँ' में देते हैंI नयी परिस्थितियों वाली एक नयी दुनिया की कठिनाईयों और जटिलताओं को रेखाँकित करते हुए, जिसमें सिर्फ आठ अरबपति दुनिया की आधी सम्पदा के मालिक हैं और संगठित मजदूर वर्ग को विघटन की कगार पर धकेल दिया है, वे व्यक्तिवाद से ऊपर उठने तथा सामूहिक इच्छाशक्ति और सामूहिक प्रयासों की जरुरत पर जोर देते हैंI साथ ही वे पूँजीवाद के अभूतपूर्व जघन्यतम हमलों से लड़ने और उनका प्रतिकार करने में न सिर्फ एक देश के मजदूर वर्ग के, बल्कि पूरी दुनिया के मजदूर वर्ग के एकताबद्ध प्रयासों पर विश्वाश रखने को अनिवार्य बताते हैंI
- चमनलाल, प्रोफेसर (सेवानिवृत्त), जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय
माइकल डी येट्स जिस वर्ग से आये हैं उसके प्रति लगाव और सम्मान के चलते उन्होंने एक ऐसी पुस्तक की रचना की है, जो मजदूर वर्ग के जीवन और संगठन की जटिलताओं और आंतरिक अन्तर्विरोधों से बिना ध्यान हटाये, बहुत ही आसानी से समझ में आ जाती है-- एक पुस्तक जो न केवल मजदूरों की तरफदारी करने के प्रति, बल्कि समाज को बदलने के लिए उनकी क्षमता बढ़ाने के प्रति भी वचनबद्ध हैI
- सैम गिडिन, पूर्व मुख्या अर्थशास्त्री, कैनाडियन ऑटो वर्कर्स यूनियन, राजनीति विज्ञानं, यॉर्क विश्वविद्यालय, टोरंटो, में सामाजिक न्याय के अतिथि प्राध्यापक
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इस आलेख का शीर्षक दरअसल वह सवाल है जिससे जूझते हुए , पेंसलवानिया में जन्मे सत्तर पार अर्थशास्त्री, मंथली रिव्यू पत्रिका के एसोसिएट संपादक, ट्रेड यूनियन प्रशिक्षक और लेखक माइकल डी येट्स ने इसी नाम से अपनी ताज़ातरीन पुस्तक लिखी है जिसका हिंदी अनुवाद दिगंबर ने किया है । दिल्ली के गार्गी प्रकाशन से छपी यह पुस्तक विस्तार से न केवल मजदूर की परिभाषा को तर्क पूर्ण विस्तार देती है , पूंजीवाद के खात्मे के लिए उसकी लड़ाई का ऐतिहासिक वैश्विक आंकलन करते हुए आवश्यक बदलावों की भी चर्चा करती है ।
आज जब चरम पूंजीवाद के इस दौर में लगता है कि मजदूर, परम्परागत रूप से मजदूर रहा ही नहीं ;
मान लिया गया है कि न मिलें उस रूप में मिलें रहीं न मजदूर उन अर्थों में मजदूर , तब यह कहना कि पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंका जा सकता है और वह भी मजदूरों के द्वारा , एक तरह का सिनिकल यूटोपिया लगता है । परंतु माइकल अपनी इस दो सौ पृष्ठों की पुस्तक मे यह समझा पाने में सफल हुए हैं कि यह यूटोपिया नहीं , हक़ीक़त है ।
पूंजीवादी सत्ता-मीडिया और बुद्जीवियों ने यह समझ बनाई है कि मजदूर एक वर्ग के रूप में ख़त्म होता जा रहा है और ट्रेड यूनियन आंदोलन एक पिटा-पिटाया मुद्दा है । यह पुस्तक ' पिछले कई दशकों के दौरान मजदूर वर्ग की संरचना में आए बदलाव और उसके नए स्वरूप' से परिचित कराती है और मजदूर वर्ग की एक नयी परिभाषा गढ़ती है ।
मजदूरों द्वारा दुनिया बदलने का मतलब है पूंजीवाद का ख़ात्मा । ऐसा तभी सम्भव है जब संघर्ष और बदलाव के विषयों में आर्थिक ही नहीं, सामाजिक ढांचे और पर्यावरण, धर्मों के आडम्बर, पितृसत्ता के संस्कारों को भी शामिल किया जाए । क्योंकि यह सब और इन सब में ज़ारी शोषण तथा अलगाववाद के तरीके ही मिल कर पूंजीवाद का रास्ता प्रशस्त करते हैं । पूंजीवादी व्यवस्था में 'प्रकृति को पूंजी ने चुरा लिया ताकि श्रम का और अधिक शोषण किया जा सके । यही नहीं, ज़मीन, पानी और यहां तक कि हवा को भी माल में बदल दिया गया । जिसे ख़रीदा और बेचा जा सकता है ।' ऐसे में दुनिया को बदलने का संधर्ष कई आयामी जटिल हो गया है और बदलाव की मजदूर सेना का कदाचित् विस्तार अत्यंत आवश्यक है ।
'सही अर्थों में मजदूर क्या है ? क्या हर वह व्यक्ति जो मजदूरी के बदले में काम करता है, वह मजदूर की श्रेणी में आता है? शायद अमूर्त अर्थ में यह ऐसा ही है । लेकिन दुनिया को बदलने के लिहाज से यह एक बेकार परिभाषा है । पुलिस और जेल रक्षकों की यूनियनें हैं । उन्हें मजदूरी दी जाती है और वे अपने ऊपर वालों का आदेश पालन करते हैं । वे स्पष्टतः मजदूर हैं । लेकिन वे दूसरे कर्मचारियों के अधिकारों के समर्थक नहीं हैं, बल्कि इसके ठीक विपरीत हैं, जैसा कि पूंजीवाद के समूचे इतिहास ने दिखाया है । इससे भी कहीं ज्यादा हास्यास्पद होगा इस श्रेणी में प्रमुख कार्पोरेट कर्मियों (वकीलों, अकाउंटेंट और दूसरे ऊंची तनख्वाह वाली योग्यताओं और पूंजीवाद के समर्थकों सहित) ऊंचे राजनयिक पदों पर आसीन लोगों, शेयर बाजार के कुलीनों इत्यादि को शामिल करना । जो लोग इन पदों पर विराजमान होते हैं वे तनख्वाह भले पाते हों लेकिन वे सभी, जिन्हें हम सामान्य मजदूर वर्ग मानते हैं उनके हितों में उठाए जाने वाले हर कदम के खिलाफ होते हैं । वे दुनिया को बदलने का इससे अलग कोई तरीका नहीं इस्तेमाल कर सकते कि उनकी नौकरी कायम रहे, उनके अधिकार बढें और उनकी दौलत में इजाफा हो ।
इससे उलट, पेशेवर खिलाड़ी, अभिनेता और संगीतकर्मी जिनमें से कुछ को कम से कम अमरीका और दूसरे देशों में बहुत ऊंची तनख्वाह मिलती है, वे बुनियादी बदलाव के सम्भावित सहयोगी हैं । तुलनात्मक रूप से बेहतर तनख्वाह पाने वाले पेशों जैसे- डाक्टर, इंजीनियर और कालेज के प्रोफेसरों का श्रम भी दिनों-दिन अधिकांश मजदूरों के समान ही होता जा रहा है ।'
मजदूर के साथ ही जुड़ा शब्द है मजदूरी । मजदूर यानी जिसके पास पेट पालने के लिए अपना श्रम बेचने के अलावा कोई विकल्प नहीं । परन्तु श्रम करने-बेचने के एवज में मिले पैसों, मानदेय, तनख्वाह आदि शब्दों से अलग ध्वनि आती है मजदूरी से । हर तरह का रेम्यूनरेशन मजदूरी नहीं होता । इसलिए हर तरह का श्रम भी आपको श्रमिक की श्रेणी में नहीं रख सकता । इस तरह एक सीमित तबका बनता है मजदूर का जो समाज के श्रमशील तबके का अत्यंत छोटा हिस्सा बन कर रह जाता है । ज़ाहिर है कि समाज के बदलने में उस छोटे से तबके की भूमिका भी छोटी ही होगी । माइकल डी येट्स का अध्ययन-विश्लेषण यहीं हमें आगाह करता है कि ' अगर हम मजदूर वर्ग में शामिल होने के लिए मजदूरी पर काम करने को एक ज़रूरी शर्त मान लें तो करोड़ों लोगों को खो देंगे जिनको मजदूरी तो नहीं मिलती लेकिन वे ऐसे तरीकों से काम करते हैं जिससे पूंजी को फायदा होता है ।' इसलिए माइकल ' बिना तनख्वाह के उत्पादक श्रम ' करने वालों और 'श्रम-बल के उत्पादन के लिए बेहद जरूरी' माहौल बनाने वालों को भी मजदूर वर्ग की श्रेणी में ले आने की सिफारिश करते हैं ।
' न केवल बच्चे पैदा करना, बल्कि उसके लालन-पालन का सारा काम, खाने का सामान खरीदना और पकाना, पालन-पोषण, परिवार में मेहमाननवाजी और छुट्टियों के दौरान काम, स्कूल के लिए बच्चों को तैयार करना, मोटर चलाना और ऐसे ही तमाम काम शामिल हैं । इन सभी कामों से मालिकों का काफी मुनाफा बढ़ता है क्योंकि उनको बिना एक भी पैसा खर्च किए कम्पनी की जरूरत के लायक, कुशलता में प्रवीण नौजवान मिल जाते हैं, जैसे - आज्ञापालन, साक्षरता, अच्छी सेहत, प्रतिस्पर्धी होना इत्यादि । मजदूर वर्ग के बीच से पूरे समय इन कामों को करने वाले करोड़ों लोगों को बाहर कर देना, उन असंख्य लोगों को अपने से दूर करना है जिनकी परेशानियां इतनी ज्यादा हैं कि वे जरूर इस दुनिया को बुनियादी रूप से बदलना चाहेंगे '
मजदूर जो प्रत्यक्ष हैं, दिख रहे हैं, रोजगार से जुड़े हैं अथवा भले ही बिना तनख्वाह का श्रम कर रहे हैं मगर तनख्वाह पर काम करने वालों की बैक बोन होते हैं, इन सबके अलावा एक और बड़ी तादाद अप्रत्यक्ष मजदूरों की है जो पूंजीवादी व्यवस्था का बाई प्रोडक्ट हैं, जिन्हें बेरोजगार कहते हैं । यानी मजदूर की परिधि- परिभाषा में तीन लोग आते हैं- तनख्वाह वाले, बिना तनख्वाह वाले और बेरोजगार जिन्हें काम की तलाश है । माइकल इस तीसरी श्रेणी को ' मजदूरों की आरक्षित सेना कहते हैं, एकतरह के 'सम्भावनाशील मजदूर' । सो वैतनिक, अवैतनिक और सम्भावनाशील मजदूर, ये तीनों मिल कर मजदूर वर्ग की एक बड़ी और व्यापक परिधि बनाते हैं।
लेखक उपरोक्त वर्णित तीन श्रेणियों के अलावा उन्हें भी मजदूर की श्रेणी में रखता है जिन्होंने बेरोजगार होते हुए भी अपने मजदूर बनने की सम्भावना पर विराम दे रखा है । यानी वह बड़ी तादाद जो किन्हीं कारणों से श्रम बाजार से निराश और दूर है, जिन्होंने रोजगार के अवसर कम होने के चलते काम की तलाश बंद कर दी है, यानी 'हतोत्साहित मजदूर' । सम्भावनाशील और हतोत्साहित मजदूर के अलावा दुनिया की एक बड़ी तादाद जिसे मोटी-मोटा किसान की श्रेणी में रख सकते हैं, ऐसी है जो पूंजीवादी विकास के अभिशाप से अपनी जमीन से उजड़ कर कंगाली की ओर जाने को अभिशप्त है और बगावती तेवर अख्तियार कर रही है । ये छोटी जोत वाले किसान, मजदूर वर्ग के 'सम्भावनाशील सहयोगी हैं' । 'बेशक वे कर्मचारी भी नहीं हैं' परंतु 'अपनी दो जून की रोटी जुटाने के लिए अक्सर मजदूरी भी करते हैं । उनके बच्चे छोटे-मोटे काम करते हैं और घर पर पैसा भेजते हैं' । ऐसे में अगर इस बड़ी तादाद को जो एक तरफ आत्महत्या भी कर रही है दूसरी तरफ संधर्ष भी, इन छोटी जोत वाले और भूमिहीन किसानों को भी यदि मजदूर मान लिया जाए तो वास्तविक मजदूर आंदोलन की व्यापकता और बढ़ जाती है । इन किसानों को व्यापक बदलाव में शरीक होने का एहसास दिलाने के लिए 'उनके संधर्षों को मजदूर वर्ग का हर तरह से समर्थन मिलना चाहिए' । तभी किसान-मजदूर की सम्मलित सेना बन पाएगी ।
माइकल भारत का उदाहरण पेश करते हैं -' भारत में हर दिन 47 किसान आत्महत्या करते हैं जिसका कारण उनका कर्ज में दबा होना, खराब मौसम, फसलों की गिरती कीमतें और वैश्विक पूंजीपतियों की लूट की हवस है, जो उनकी जमीनों के बड़े-बड़े टुकड़े खरीदते हैं या जबरन कब्जा कर लेते हैं । वे उन जमीनों पर उन्नत तकनीक और कम लागत से व्यावसायिक खेती करते हैं और किसानों की प्रतिस्पर्धी क्षमता को खोखला कर देते हैं' । इस तरह क्षम-बल में शामिल या श्रम-बल से बाहर रह रहे, श्रम की आरक्षित सेना में शामिल किसान को मिला कर किसी खास समय में काम कर रहे अरबों लोगों में से यदि '20 प्रतिशत को भी संगठित करने का कोई उपाय निकल आए तो वे निश्चय ही इस दुनिया को बदल देंगे' ।
शोषण पर आधारित यह दुनिया बदलनी ही होगी ।
' अगर यूनियनों, किसान संधों और राजनीतिक संस्थाओं को दुनिया बदलने के लिए एकसाथ काम करना है, एक अलगाव से मुक्त समाज को अस्तित्व में लाना है, तो ब्राजील के भूमिहीन मजदूर आंदोलन के आदर्श वाक्य को सबके लिए जुलूस का नारा बनाना जरूरी होगा " कब्जा करो, प्रतिरोध करो, उत्पादन करो ।"
माइकल पुराने अध्ययन, पुरानी मान्यताओं और पुराने तौर-तरीकों से हमें आगाह करते हुए कहते हैं कि -' परम्परागत ट्रेड यूनियनें और सामाजिक जनवादी राजनीति आज इसीलिए अप्रासंगिक हैं कि वे कभी रेडिकल सामाजिक रूपांतरण नहीं कर सकतीं । यही हाल मुख्यधारा के पर्यावरणवादी समूहों का भी है, गैर-सरकारी संगठन जो आक्रामक प्रजातियों की तरह फैले हैं तथा तमाम उदारपंथी नारीवादी, नृजातीय समूह और रेडिकल वकीलों के समूह भी इस काम के लिए अयोग्य हैं । उनके हित पूंजीवादी व्यवस्था के साथ नत्थी हैं ; मुख्य रूप से वे सिर्फ थोड़ा बड़ा कौर चाहते हैं । कौर क्या है और यह कैसे हासिल हो, हर समय यही बातें उनके दिमाग में तैरती रहती हैं ।'
तब सवाल यह भी है कि आखिर वह 'रेडकल सामाजिक रूपांतरण' करने वाली फौज कहां से आएगी? कब आएगी? कौन लाएगा?
कुछ जवाब माइकल ने अपनी पुस्तक में दिए हैं, बाकी के हमें स्वयं इरादतन ढूंढने होंगे। इस पुस्तक में एक खास बात यह नजर आई कि बहुत सारे प्रश्नों के जवाब ढूंढने में गांधी हमारी मदद कर सकते हैं । आप यह पुस्तक गांधी के 'हिंद स्वराज' के साथ पढ़ें तो चिंताएं ही नहीं समाधान भी कहीं-कहीं साझा लगते हैं ।
अंग्रेज़ी से सरल-सहज हिंदी अनुवाद के लिए दिगम्बर बधाई के पात्र हैं । इस विषय पर हिंदी में मेरे जानते यह अकेली पुस्तक है जिसे परिवर्तनकामी हर व्यक्ति को पढ़नी चाहिए । 200 पृष्ठों की बेहद महत्वपूर्ण और मौलिक इस पुस्तक की कीमत सिर्फ 120 रू. है । इसके लिए गार्गी प्रकाशन बधाई का पात्र है।
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देवेन्द्र आर्य
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मुझे सबसे आसान भाषा हिंदी लगती है। हालांकि पढ़ाई मैंने कान्वेंट में की और स्नातक भी इंग्लिश मीडियम से ही किया। लेकिन, रोजी रोटी हिंदी ने दी। पहले हिंदी तंग थी, अब इंग्लिश तंग है।
बहरहाल, दुनिया की समझ हिंदी पढ़कर ही बना रहा हूं। और ये इसलिए आसान हुवा क्योंकि दिगम्बर जी जैसे धांसू के हिंदी अनुवादक है। जिनका अनुवाद ऐसा होता है, मानो किसी टीचर की उंगली पकड़कर आप किताब में टहलते चले जाते हो।
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