द्वारा In Book Review Endless crisis

डा. महावीर शर्मा

1929-30 में अमरीका में महामंदी का संकट आया, जिसमें बड़े-बड़े बैंक व अन्य वित्तीय संस्थान दिवालिया हो गए। दुनिया के शेयर बाजारों में अफरा-तफरी फैल गई। इसका व्यापक असर यूरोप व अन्य देशों पर भी पड़ा। यह महामंदी द्वितीय विश्व युद्ध तक जारी रही। अमरीकन सरकार की ‘न्यू डील’ भी इसका असर दूर करने में असफल रही। याद रहे कि न्यू डील के तहत बहुत भारी मात्र में पूंजी वित्तीय संस्थानों को दी गई। बैंकों के दिवालिया होने का खामियाजा सरकारों ने भुगता व भविष्य में इन पर निगरानी रखने के नियम बनाए गए।

कीन्सवाद के जन्म का समय भी यही है, जिसमें राज्य नियंत्रण की अवधारणा व उसके ‘सोशल वैल्फेयर स्टेट’ के विचार के तहत जनता को मुफ्त शिक्षा स्वास्थ्य व अन्य बड़ी जनसुविधाएं उपलब्ध करवाना है। यह सब कुछ किया गया, ताकि बेरोजगारी की बढ़ती दर पर लगाम कसे। लोगों की क्रय शक्ति बढ़े और मंदी दूर हो। पर यह सब भी पूर्ण समाधान न बन सका। हां इससे कुछ राहत जरूर प्राप्त हुई। इस महामंदी के दौरान व उसके बाद 1950 में आते-आते सभी धाराओं के अर्थशास्त्रिायों ने इसके कारणों पर अपनी दो प्रस्थापनाएं प्रस्तुत की। कीन्स, शूमपीटर, बरान, मैगडाम व स्वीजी इनमें मुख्य हैं। बेशक, कीन्स ने भी बेलगाम वित्तीय सट्टेबाजी को ही महामंदी का कारण बताया, लेकिन शूमपीटर व बरान व स्वीजी की जोड़ी के बीच चली लंबी बहस से ये स्पष्ट हो गया कि कीन्स का सिद्धांत अविकसित है। शूमपीटर से भी एक कदम आगे जाकर, स्वीजी, बरान व मैगडाफ ही थे, जिन्होंने उसी समय वित्तीय एकाधिकारी पूंजी के सट्टेबाज रूप व इसकी गतिकी-यांत्रिकी को पहचान लिया था। उन्हीं की कुछ सबसे महत्वपूर्ण प्रस्थापनाओं के आधार पर ही प्रस्तुत पुस्तक ‘एण्डलैस क्राईसिस’ (अन्तहीन संकट) फोस्टर व मैक्केरूनी ने 2007 की महामंदी पर लिखी है।

यह पुस्तक एक तरह से 2009 में प्रकाशित हुई फोस्टर व मैगडाफ की पुस्तक 2007 का महासंकट, कारण व दुष्परिणाम की अगली कड़ी है। ये दोनों पुस्तकें हमें स्वीजी, बरान व मैगडाफ के योगदान का महत्व दर्शाती हैं, जिन्होंने 1940-42 में ही हमारी दुनिया के आर्थिक भविष्य को स्पष्टता से पहचान लिया था। 1966 में छपी ‘द मोनोपोली कैपिटल’ व इसके बाद अपनी दर्जन भर दूसरी रचनाओं में ये सफर जारी रहा और 1990 में छपी ‘मोनोपोली कैिपटल आफ्टर 25 इयर्स’ में ये सफर एक ऐसी मंजिल पर पहुंचा कि आज पूरे विश्व के आर्थिक-राजनीतिक पटल पर, इस विषय पर एक जोरदार बहस छिड़ी हुई है। ‘अंतहीन संकट’ इस बहस में सबसे बड़ा सकारात्मक योगदान है, जो हमारी दुनिया की आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक दिशा का स्पष्ट ज्ञान करा रहा है।

  1. आखिर वे क्या प्रस्थापनाएं हैं, जिन पर यह पुस्तक आधारित है? पहली दो महत्वपूर्ण प्रस्थापनाएं ये हैं – 1930-40 के दशक का महाठहराव, महामंदी, एकाधिकारी वित्तीय पूंजी की बेलगाम सट्टेबाजी के कारण है जो महज एक इतेफाक न होकर, इसकी चारित्रिक विशेषता है। यह वित्तीय पूंजी का उत्पादन पूंजी के सहायक के रूप में काम करने की बजाए उसके सिर पर बैठने से भी आगे की बात है। इसमें पूंजी की चारित्रिक विशेषता यानी संचय के नियम के चलते जो भी अतिसंचय है उसका विनाश करना ही पड़ता है।
  2. पूंजीवाद की प्रोढ़ावस्था में ‘ठहराव/मंदी’ कोई चक्रीय रूप से घटने वाली चीज नहीं रह जाती, बल्कि इस अवस्था की चारित्रिक विशेषता बन जाती है। यानी की प्रौढ़ पूंजीवाद (मैच्योर कैपिटलिज्म) ठहराव पर ही पलेगा। दूसरे शब्दों में कहें तो ठहराव व मंदी स्थायी परिघटना है। ‘अन्तहीन संकट’ के प्रथम दो अध्याय एकाधिकारी वित्तीय पूंजी और संकट, दूसरा पूंजी संचय का वित्तीयकरण। उपरोक्त दोनों प्रस्थापनाओं को तथ्यों, आंकड़ों व वर्तमान स्थिति के आधार पर सही साबित करते हैं।

राजनीतिक-अर्थशास्त्र का साधारण सा जानकार भी यह देखकर हैरान होगा कि स्वीजी, बरान व मैगडाफ में क्या कमाल की दूरदृष्टि है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद मंदी दूर हो जाती है। ब्रेटनवुड संस्थाओं (आई एम एफ, डब्ल्यू बी आदि) की स्थापना होती है। पूंजी, पूरे विश्व में तरक्की का परचम उठाए दिखती है। जीवन स्तर में बढ़ौतरी, आटो उद्योग का विकास, बेरोजगारी कम होना, जी डी पी बढ़ना, सब होता है। हर ओर आशा भरा माहौल दिखता है। इसे ही ‘सुनहरे युग’ (1950-70) का नाम दिया जाता है। इसका पूरा श्रेय कीन्सवाद के सरकारी नियंत्रण व ‘सोशल वैल्फेयर स्टेट’ के सिद्धांत को दिया गया। इस चकाचौंध में भी स्वीजी, बरान, मैगडाफ अपनी प्रस्थापनाओं पर न केवल अडिग रहे, बल्कि उन्हें आगे विकसित किया। उन्होंने कहा कि मंदी दूर करने का श्रेय कीन्सवाद को देना गलत है। दरअसल मंदी द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान हुए विध्वंस व उसके बाद हुए पुनर्निर्माण से दूर हुई है यानी कि महामंदी युद्ध की अर्थव्यवस्था में समाहित हो गई हैं। ब्रेटनवुड संस्थाओं द्वारा झोंकी जा रही वित्तीय पूंजी फिर से सट्टेबाजी कर ‘बुलबुलों’ का निर्माण करेगी जो कारपोरेटों/कार्टेलों के बेहिसाब मुनाफे बढ़ाएगा। अतिसंचय उर्फ सम्पति अपहरण, भारी आर्थिक विषमता पैदा करेगा व महासंकटों/महाठहरावों की अटूट श्रृंखला का निर्माण करेगा।

‘अन्तहीन संकट’ पुस्तक के तीसरे, चौथे व पांचवें अध्याय इसी दूरदृष्टि की व्याख्या करते हुए, 1974-75 की तीव्र मंदी, 1997 का पूर्वी एशिया संकट, सन 2000 का टैक्नोलोजी बुलबुला, यूरोप की मंदी व 2007 के आवासीय बुलबुले के संकटों को प्रमाण के तौर पर पेश करते हैं। जैसा कि पहले कहा गया है कि ये सब संयोग नहीं, बल्कि नियम है। जैसे ही बुलबुला फटता है खरबों रुपए की कागजी परिसर प्रतियां एक झटके में कूड़ेदान में डालनी पड़ती हैं और इस सारे नुक्सान की भरपायी आमजन को करनी पड़ती है। 1975 से 2007 तक यही बार-बार हो रहा है। इसे कहते हैं ‘मुनाफे का निजीकरण व घाटे का सामाजीकरण’।

2007 के बाद से अमरीका-यूरोप महामंदी से लगातार जूझ रहे हैं ग्रीस नीलाम हो रहा है, स्पेन, इटली कतार में खड़े हैं। ब्रिटेन व फ्रांस प्रतीक्षारत हैं। हर जगह आमजन बदहाल हैं और अब चीन में भी ठहराव, जिसकी चर्चा इस पुस्तक के आखिरी     अध्याय ‘महाठहराव व चीन’ में 2012 में ही कर दी गई थी। अब वित्तीय प्रसार एक स्वस्थ वास्तविक अर्थव्यवस्था की समृद्धि पर नहीं पलता, बल्कि यह अंतहीन ठहराव पर पलता है। मंदी व महंगाई का एक साथ मौजूद रहना और क्या साबित करता है। आज के समय में, वास्तविक अर्थव्यवस्था व वित्तीय व्यवस्था के बीच का यह उलटा रिश्ता ही, विश्व में नई प्रवृतियों को समझने की कूंजी है।

अन्तहीन संकट के लेखक फोस्टर व मैक्केसनी कहते हैं कि धीमी विकास दर के लिए अर्थशास्त्री ठहराव शब्द का प्रयोग करते हैं आम आदमी के लिए इसका मतलब है, वास्तविक मजूदरी का लगातार कम होते जाना, भारी बेरोजगारी, सरकारी सार्वजनिक सुविधाओं के बजट में लगातार कटौती, बढ़ती असमानता और जीवन स्तर में लगातार गिरावट। आज खुद पूंजीवाद के नीतिकार यह बात स्वीकार करते हैं कि ऐसा हो रहा है पर वे इसकी सही-सही व्याख्या नहीं करते कि ऐसा क्यों हो रहा है? इनमें से अधिकांश धुरंधर इसी आस्था से चिपके रहते हैं कि पूर्ण रोजगार और तीव्र विकास, पूंजीवाद की स्वाभाविक अवस्था है। इसलिए अंततः ‘बाजार’ अपना जादू दिखाएगा और सब ठीक-ठाक कर देगा। हमारा तर्क इसके विपरीत है कि यह एक अन्तहीन संकट है, क्योंकि यह इस नृशंसता की उपज है, जिसे हम ‘एकाधिकारी वित्तीय पूंजी’ का नाम देते हैं। जो बेलगाम है और जिसके आगे सारे राष्ट्राध्यक्ष घुटने टेके खड़े हैं।

आखिरी अध्याय से ‘चीन की मंदी’ का मामला इस भयावह व सनसनीखेज निष्कर्ष की ओर ले जाता है कि आज की वैश्वीकृत दुनिया में एकाधिकारी वित्तीय पूंजी का अन्तहीन संकट, स्थान और काल (टाईम एंड स्पेस), दोनों ही मायनों में अन्तहीन हैं। जिस तरह इस व्यवस्था के भीतर, ऐतिहासिक रूप से ऐसा कोई उपाय मौजूद नहीं है। जो इसकी परिपक्वता के बढ़ते  अन्तर्विरोधों को ऊपर उठने से रोक पाए, ठीक उसी तरह ऐसी कोई प्राकृतिक नियति नहीं है जो सम्पूर्ण धरती पर छाई हुई इस  आपराधिक धारा से हमें मुक्त करा दे। यह हमारे सामने केवल एक ही अंतिम विकल्प छोड़ता है – सम्पूर्ण विश्व का क्रांतिकारी पुर्ननिर्माण या आपस में टकरा रहे वर्गों की तबाही’ यह पूरे पृथ्वी ग्रह की तबाही भी हो सकती है।

अन्त में भाई दिगम्बर व गार्गी प्रकाशन को ढेर सारा  साधुवाद, इतनी शानदार पुस्तक के हिन्दी अनुवाद व प्रकाशन के लिए।

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