द्वारा In Politics Hindi Books

देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू पर कल एक स्मरण लिखा था। जिस पर कई भक्तगणों ने कुतर्क पेश किये। ऐसे भक्तगणों के लिए एक किताब पेश कर रहा हूँ। मनोरोग विशेषज्ञ डॉक्टर कहते हैं कि यदि भक्त रोज़ सुबह-शाम खाना खाने के बाद इस किताब के दो-दो पन्ने भी पढ़ लें तो बहुत फायदा मिलेगा। जबकि फिजिशियन कहते हैं कि अगर भक्त पढ़ता तो वो भक्त ही क्यों होता।

हिस्ट्री रिपीट्स इट्सेल्फ

पिछले दिनों स्वीट्जरलैण्ड के साइकोलॉजिस्ट और प्रसिद्ध लेखक कार्ल गुस्तव युंग को पढ़ रहा था। इत्तेफाक है कि जिस दिन किताब पढ़कर खत्म हुई, उसी दिन पत्रकार गौरी लंकेश की भी हत्या हो गई। कार्ल गुस्तव युंग के 1930 से 1941 तक के तमाम लेखन को गार्गी प्रकाशन, दिल्ली ने प्रकाशित किया है। जर्मन से हिन्दी अनुवाद दिगम्बर ने किया है। किताब का नाम है ‘नाजीवादी जर्मनी की मनोदशा’। किताब के जरिये यह बताने की कोशिश की गयी है कि उस वक़्त जर्मन-वासियों की मनोदशा कैसी थी।

युंग ने ताउम्र जर्मनी में बतौर साइक्लोजिस्ट कार्य किया था। किताब में युंग बताते हैं कि कैसे नाजी जर्मनी में राजनीतिक हत्याओं को जनता के एक बहुत बड़े हिस्से का समर्थन प्राप्त था। इस जनता में कुछ पत्रकार भी थे, विश्वविद्यालयों के प्रोफेसर भी थे, लेखक भी थे और कुछ कलाकार भी। देश के प्रगतीशील लोग जब ऐसे लोगों से बहस करते और पूछते कि, ऐसा क्या है कि वो राजसत्ता द्वारा किये जा रहे दमन को देश के लिये जरूरी मानते हैं। इस पर जर्मनी का ये हिस्सा (जो केवल 33 फीसदी थे) हिटलर पर अन्धभक्ति की कसमें खाते और ‘वोटन’ के आगे कुछ भी सुनने के लिये तैयार नहीं होते। वोटन जर्मनी वासियों का एक देवता था जो वहाँ पर ईसाई धर्म के प्रसार से पहले पूजा जाता था। लेकिन हिटलर के उद्धान के साथ वोटन अचानक फिर से लोकप्रिय हो गया। हिटलर का ‘आर्यन शुद्धि आंदोलन’ वोटन का ही एक हिस्सा था।

बहरहाल, ‘नाजीवादी जर्मनी की मनोदशा’ में कार्ल गुस्तव युंग लिखते हैं कि उन्होंने 1928 से 1941 तक लगभग 15 हजार से ज्यादा जर्मनवासियों के दिमाग को पढ़ा। ये एक तरह का शोध था। इनमें से कुछ उनके क्लीनिक आये थे, कुछ कार्ल ने सर्वे आधारित कैम्प आयोजित किये थे और कुछ उन्होंने हिटलर के उत्तेजित भाषणों के दौरान उन्मादी लोगों से बातचीत के आधार पर तैयार किया था। ऐसे लोगों की जब मनोदशा जाँची गई तो पाया गया कि वे अपने जीवन से असन्तुष्ट और कुछ कुण्ठित थे। लेकिन असन्तुष्टि का क्या कारण था, इसका ज्ञान उन्हें इसलिये नहीं था क्योंकि अपने जीवन में वो साक्षर ही हो सके थे। वेा स्किल्ड प्रोफेशनल तो थे लेकिन अध्ययन न होने के कारण या शिक्षित न होने के कारण वो ‘विजन’ नहीं बना पाते थे। सोच विकसित न होने के कारण वो भीड़तंत्र में बदलते गये और आखिर में हिटलर के प्रोपेगेंडा एजेंट (जो बाद में सूचना मंत्री बना) जोजेफ ग्योब्लस के जुमलों में फँसते रहे।

ऐसे लोगों के दिमाग में ‘अच्छे दिन आयेंगे’ की फैंटसी भरी होती थी लेकिन ये अच्छे दिन कैसे आयेंगे, इसका कोई खाका सरकार के पास नहीं था। देश में महज आठ फीसदी यहूदी, तीस फीसदी सरकारी नौकरी में कब्जा किये हुये लगते थे। कुछ ही साल में जर्मनी की ये भीड़ जोजेफ ग्योब्लस द्वारा इतनी प्रशिक्षित कर दी गई थी कि राजनीतिक हत्या होने पर हिलटर को सफाई देने की जरूरत नहीं पड़ती थी। सालों से प्रोपेगेंडा द्वारा तैयार की गई भीड़ अब ‘सवाल पूछने वालों’ को अपने स्तर से जवाब देने लगी थी। सत्ता अब बेकाबू हो चुकी थी। उसे जवाब देने की जरूरत ही महसूस नहीं होती थी। लिहाजा, चार साल तक हिटलर ने देश के किसी भी मुद्दे पर बयान नहीं दिया। बीस लाख कम्यूनिस्टों को और लगभग 15 लाख यहूदियों को मारने के बाद भी नहीं। तीन या चार महीने में हिटलर किसी प्राचीर में एक लम्बा उन्मादी भाषण देता था, जिसकी शुरूआत ‘वरसाई की संधि से हुये राष्ट्रीय अपमान’ से होती थी और अन्त में ‘अच्छे दिन आयेंगे’ का उद्घोष होता था।

कार्ल लिखते हैं कि मार्च 1945 में ‘ऑपरेशन बारबरूसा’ असफल हो गया और रूसी सेना बर्लिन तक पहुँच गई। उसी बीच खबर फैली की हिटलर ने अपने बंकर में आत्महत्या कर ली है। उस वक्त अंधभक्तों के दिमाग में गहरा असर पड़ा। जिसे वो सर्वशक्तिमान, अच्छे दिन लाने वाला, वोटन धर्म को उठाने वाला मानकर चल रहे थे, उसने कायरों की तरह आत्महत्या कर ली। बताते हैं कि उसके बाद कई अंधभक्त या तो पागल हो गये या उन्होंने भी आत्महत्या कर ली। ऐसे आत्महत्या करने वालों में देश के बड़े अखबारो के पत्रकार और लेखक भी थे। जिन्होंने आत्महत्या नहीं की, वो विभाजित जर्मनी का हिस्सा बने। एक तरफ अमेरिका ने राज किया और दूसरे टुकड़े में रूस ने। जो कभी राष्ट्र की अंधभक्ति में तल्लीन थे, वो इतिहास के शापित कूड़ेदान में चले गये।

-– मनमीत 

(उत्तराखंड के मौजूदा जुझारू युवा पत्रकारों में मनमीत एक हैं. देहरादून में एक दैनिक अख़बार में नौकरी करते हैं. घुमक्कड़ी के जबरदस्त शौकीन हैं और जल्द ही अपनी यात्राओं के क़िस्सों भरी एक ज़रूरी किताब के साथ हाज़िर होंगे. बहरहाल अभी इतिहास के पन्नों से वे आपके लिए कुछ निकाल लाए हैं.)