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नाजीवादी जर्मनी की मनोदशा

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1 रिव्यूज़
उपलब्धता: स्टॉक में है
कैटेगरी: मनोविज्ञान
भाषा: हिन्दी
आईएसबीएन: 81-87772-60-3
पृष्ठ: 108
अनुवादक: दिगम्बर
कुल बिक्री: 59
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अनुवाद : दिगम्बर

यह किताब समय–समय पर प्रकाशित लेखों का संग्रह है जो 1936 से 1946 के बीच लिखे गये थे। यह किताब समूह के मनोविज्ञान पर केन्द्रित है जो खाई में धकेलने वाला खतरनाक रुझान, बड़ी तादाद और मजबूत संगठनों में यकीन दिलाने वाली ऐसी ही खुशफहम सोच से शुरू होता है जहाँ व्यक्ति महज बेनाम हैसियत में छीजता जाता है। फिर हर वह चीज जो एक आम इनसान से बढ़–चढ़कर हो, वह आदमी के अचेतन में उतरकर तानाशाह शैतान को जन्म देती है। बजाय यह अहसास दिलाने के कि जिस काम को सचमुच पूरा किया जा सकता है वह व्यक्ति के नैतिक स्वभाव की ओर एक बहुत ही छोटा कदम बढ़ाना है, हमारे हथियारों की तबाही लाने वाली ताकत बेइन्तहा बढ़ गयी है और इनसान के ऊपर इस मनोवैज्ञानिक समस्या को थोप रही है––इन हथियारों का इस्तेमाल जर्मनी में खूब किया गया था।

फोटो नाम और परिचय अन्य पुस्तकें
कार्ल जी– युंग कार्ल जी– युंग
  • किसी भी देश का निकट भविष्य जानना हो तो वर्तमान की मनोदशा का विश्लेषण करना चाहिए। जनता, सियासत व सत्ता से जुड़े लोगों के आपसी संबंध देखने चाहिए। बुद्धिजीवियों के लेखों की वर्तनी का तारतम्य देखना चाहिए। मीडिया की भाषा-शैली से लेकर कंटेंट तक का बारीकी से विश्लेषण करना चाहिए। इन उत्पादों के अध्ययन से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है उत्पादक की मनोदशा पढ़ना।

    स्विस मनोचिकित्सक युंग ने एक किताब लिखी थी "नाजीवाद जर्मनी की मनोदशा"। युंग जर्मनी में मनोचिकित्सक के तौर पर अपने क्लिनिक पर आने वाले लोगों, राजनैतिक जलसों, बौद्धिक सम्मेलन व पत्रकार वार्ताओं के माध्यम से तत्कालीन नाजीवादी जर्मनी की मनोदशा पर अनुसंधान कर रहे थे। वो एनालिटिकल साइकोलॉजी के जनक रहे हैं।

    युंग ने अपनी किताब में लिखा है कि नाजी जर्मनी में राजनैतिक हत्याओं को जनता के एक बड़े वर्ग का समर्थन प्राप्त था। इसमे बौद्धिक सम्मेलन करने वाले बुद्धिजीवी, शिक्षण संस्थाओं के प्रोफेसर, अखबारों में बड़े-बड़े लेख लिखने वाले स्वतंत्र लेखक,खिलाड़ी, कलाकार व मीडिया का बड़ा वर्ग शामिल था।

    जब भी मानवतावादी प्रगतिशील लोग बहस करते या पूछते कि राजसत्ता द्वारा चलाये जा रहे दमन चक्र में ऐसा क्या है जिसको अनिवार्य समझते हुए अंध समर्थन कर रहे हो तो, जर्मनी का लगभग एक तिहाई हिस्सा हिटलर व "वोटन"की कसमें खाते थे, नारे लगाते थे। वोटन जर्मनी में ईसायत के प्रचार-प्रसार से पहले पूजे जाने वाले देवता थे। अतिप्राचीन विरासत को दुबारा जिंदा करने का जुनून सिर चढ़कर बोलता था।

    हिटलर के उदय के साथ वोटन अचानक दुबारा से लोकप्रिय हो गए। हिटलर का "नस्ल शुद्धि आंदोलन" वोटन अभियान का ही एक हिस्सा था।

    1928 से 1941 तक कार्ल गुस्ताव युंग ने लगभग 15 हजार से ज्यादा लोगों के दिमाग का अध्ययन किया था। इससे एक शोधपत्र के रूप में तैयार किया व इसका निचोड़ अपनी किताब के माध्यम से पेश किया। युंग अपनी किताब में लिखते है कि जब ऐसे लोगों की मनोदशा जांची गई तो पाया कि ये लोग कुंठित व असंतुष्ट थे। सबसे बड़ी बात यह थी कि खुद उनको ही नहीं पता था कि असंतुष्टि या कुंठा का क्या कारण है..? ये लोग शिक्षित नहीं सिर्फ साक्षर थे। ये सब स्किल्ड प्रोफेशनल थे। डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर, लेखक, पत्रकार थे लेकिन मानवीय जीवन दर्शन का कोई अध्ययन नहीं था।इनका अपना कोई विजन नहीं होता था। खुद की अपनी कोई सोच विकसित नहीं कर पाए थे इसलिए भावनाओं में बहकर भीड़तंत्र का हिस्सा बनते गए।

    ऐसे लोगों को हिटलर के प्रोपगेंडा एजेंट जोजेफ गोएबल्स ने अतीत के महान वोटन काल का धतूरा पिलाकर "अच्छे दिन आएंगे" सरीखे जुमलों में फांस लिया। अच्छे दिन कैसे आएंगे..? इसका कोई खाका न गोएबल्स की प्रोपगेंडा मशीनरी ने पेश किया और न इनके द्वारा तैयार जोम्बी को पता होता था। मानवतावादी लोग व यहूदियों को देश की सारी समस्याओं की जड़ बताकर दुश्मन घोषित किया जाने लगा। 8 फीसदी यहूदियों को देश के लिए खतरा बताया गया। कुछ ही सालों में गोएबल्स द्वारा इस भीड़ को इतना प्रशिक्षित कर दिया गया कि मानवतावादी लोगों या यहूदियों की हत्या होने पर हिटलर या उनकी सरकार को जवाब देने की जरूरत ही नहीं होती, यह भीड़ ही सवाल पूछने वालों को अपने हिसाब से जवाब देने लगी थी। सत्ता अपने उत्तरदायित्व से मुक्त होकर बेलगाम हो गई।

    20लाख मानवतावादी व 15 लाख यहूदियों की मौतों के बाद भी हिटलर ने कोई जवाब नहीं दिया। चार साल तक हिटलर ने किसी भी मुद्दे पर जवाब में एक बयान तक नहीं दिया। हिटलर इन हत्याओं से बेपरवाह रैलियां करता था और लंबा उन्मादी भाषण देकर निकल जाता था।इसके भाषण की शुरुआत "वर्साय की संधि से हुए अपमान" से होती थी और "अच्छे दिन आएंगे" के जयकारों के साथ समापन होता था।

    कार्ल गुस्ताव युंग ने अपनी किताब में लिखा "मार्च 1945 में ऑपरेशन बार्बोरोसा की जवाबी कार्यवाही करते हुए रूसी सेना बर्लिन में घुसी तो हिटलर ने खुद को बंकर में बंद कर लिया। जब बर्लिन पर कब्जा हुआ तो खबर फैली कि हिटलर ने आत्महत्या कर ली। इससे हिटलर के अंधभक्तों का दिमागी संतुलन बुरी तरह गड़बड़ा गया।

    जिसको सर्वशक्तिमान, देवदूत, वोटन धर्म दुनियाँ में डंका बजाने वाला, अच्छा दिन लाने वाला, 56इंची वोटन हृदय सम्राट समझ रहे थे, उसने कायरों की तरह आत्महत्या कर ली। युंग लिखते है कि उसके बाद कई अंध समर्थक पागल हो गए व कइयों ने आत्मग्लानि में डूबकर आत्महत्या कर ली। इनमें बड़े पत्रकार, प्रोफेसर, लेखक व कलाकार भी शामिल थे। जो जिंदा बच गए वो इतिहास की काल कोठरी में पड़कर घुट-घुट के मरे थे।

    जगह, समय व समूह बदल जाते हैं, लेकिन थोड़े अंतर से इतिहास अपने आप को दोहराता है।
    (फेसबुक पोस्ट से साभार)

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