आज दुनिया में विज्ञापन हर जगह है । इससे शायद ही कोई बच पाए । इसलिए सवाल उठना लाजमी है कि क्या विज्ञापन करना न्यायसंगत होता है ? अधिकांश लोगों का मानना है कि विज्ञापन हमारे जीवन और दिमाग में, बिना हमारी मर्जी के घुसपैठ ही नहीं, बल्कि हमारे निजी जीवन पर हमला भी है । इसके बावजूद हम इसकी गिरफ्त में आ जाते हैं । आखिर क्यों? यह दलील कि उत्तेजित हुए बिना भी हम इसके बारे में जागरूक हो सकते हैं, और यह कि हम इस बारे में कुछ नहीं कर सकते, हमारी हुक्मबरदारी की तरफ इशारा करती है । इस पर शायद ही कभी ध्यान दिया जाता हो कि विज्ञापन में एक वर्चश्व का रिश्ता होता है और वैचारिक रूप से यह एक भ्रष्ट रिश्ता है । कुछ लोग बोलते हैं और बाकी लोग सुनते हैं । ऐ जे लिबलिंग का मशहूर कथन है ‘‘प्रेस की आजादी लाजमी तौर पर मिलेगी, बशर्ते आप इसके मालिक हों ।’’ बोलने की आजादी भी लाजमी तौर पर मिलेगी । बशर्ते आप कुछ लाख डॉलर खर्च करके एक प्रभावशाली मीडिया रणनीति बना सकते हों । मंचों से दिये गये लच्छेदार भाषण अब लोगों को मूर्ख नहीं बनाते । लेकिन विज्ञापन अपने लागत मूल्य से कई गुना अधिक प्रभावशाली होता है । यह पुस्तिका इन्हीं मुद्दों पर केन्द्रित है और विज्ञापन से जुड़े मुद्दों की गहन पड़ताल करती है।
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जैरी मैण्डर |
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