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पूँजीवाद और मानसिक स्वास्थ्य

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कैटेगरी: मनोविज्ञान
भाषा: हिन्दी
पृष्ठ: 24
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एक मानसिक–स्वास्थ्य संकट पूरी दुनिया को अपनी गिरफ्त में ले रहा है । विश्व स्वास्थ्य संगठन के हालिया अनुमान बताते हैं कि दुनिया भर में तीन करोड़ से अधिक लोग अवसाद से पीड़ित हैं । इसके अलावा, कहा जाता है कि 2.3 करोड़ लोगों में सिजोफ्रेनिया के लक्षण पाये जाते हैं, जबकि लगभग आठ लाख व्यक्ति हर साल आत्महत्या करते हैं ।(1) इजारेदार–पूँजीवादी देशों के भीतर, हृदय रोग और कैंसर के बाद मानसिक–स्वास्थ्य सम्बन्धी विकार ही जीवन प्रत्याशा में गिरावट का प्रमुख कारण हैं ।(2) यूरोपीय संघ में, यह पाया गया है कि अठारह और पैंसठ वर्ष की आयु के बीच की 27 प्रतिशत वयस्क आबादी मानसिक–स्वास्थ्य सम्बन्धी जटिलताओं से गुजरी है ।(3) इसके अलावा, अकेले इंग्लैण्ड में, पिछले दो दशकों में खराब मानसिक स्वास्थ्य की प्रबलता लगातार बढ़ी है । राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा द्वारा किये गये सबसे हालिया वयस्क मानसिक रुग्णता सर्वेक्षण से पता चलता है कि 1993 में 16 वर्ष से अधिक आयु की 14.1 प्रतिशत की तुलना में, 2014 में 17.5 प्रतिशत आबादी अवसाद या चिन्ता के विभिन्न रूपों से पीड़ित थी । इसके अलावा, जिन व्यक्तियों में काफी गम्भीर लक्षण मौजूद थे और जिनको तत्काल इलाज की जरूरत थी, उनकी संख्या इसी दौरान 6.9 प्रतिशत से बढ़कर 9.3 प्रतिशत हो गयी ।(4) 


पूँजीवादी समाज में, मानसिक स्वास्थ्य की समझदारी पर जीववैज्ञानिक व्याख्याएँ हावी होती हैं, जिनको पेशेवर लोगों और जन जागरूकता कार्यक्रमों द्वारा बढ़ावा दिया जाता है । इसका प्रतीक मस्तिष्क में रासायनिक असन्तुलन का सिद्धान्त है–– जिसमें सेरोटोनीन और डोपामाइन जैसे न्यूरोट्रांसमीटर के संचालन पर ध्यान केंद्रित किया जाता है–– जिसने आम तौर पर अप्रमाणित होने के बावजूद लोकमानस और अकादमिक चेतना को जकड़ लिया है ।(5) इसके अलावा, जीव विज्ञान के भीतर आनुवंशिक न्यूनतावाद की लोकप्रियता को प्रतिबिम्बित करते हुए, आनुवंशिक गड़बड़ी को मानसिक–स्वास्थ्य विकारों का एक अन्य कारण चिन्हित करने का प्रयास किया गया है ।(6) इसके बावजूद कि जीनोमिक्स पर आधारित व्याख्याएँ निर्णायक साक्ष्य प्रस्तुत करने में विफल रही हैं ।(7) विशिष्ट मामलों में खराब मानसिक स्वास्थ्य को लेकर एक हद तक ज्ञानवर्धक अन्तर्दृष्टि प्रदान करते हुए भी, जीववैज्ञानिक व्याख्याएँ अपने आप में पर्याप्त नहीं हैं । जो बात बिलकुल स्पष्ट है, वह है उस विशेष सामाजिक ढाँचे का अस्तित्व, जो खराब मानसिक स्वास्थ्य के कारणों को जीववैज्ञानिक नियतत्ववाद तक गिरा देना साफ तौर पर असम्भव बना देती है ।(8)


सामाजिक कारणों की व्याख्या को जैव–चिकित्सकीय ढाँचे के अधीन करके, मानसिक स्वास्थ्य और सामाजिक स्थितियों के बीच के अभिन्न सम्बन्ध को काफी हद तक धुँधला कर दिया गया है, और उसे वैज्ञानिक शब्दावली के आवरण में छुपा दिया गया है । निदान अक्सर व्यक्ति से शुरू होता है और वहीं समाप्त होता है, क्योंकि सामाजिक कारकों की जाँच की कीमत पर जैव–अनिवार्यतावादी कारणों की शिनाख्त की जाती है । हालाँकि, समाज की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था को लोगों के मानसिक स्वास्थ्य में एक महत्वपूर्ण योगदानकर्ता के रूप में पहचाना जाना चाहिए, क्योंकि कुछ सामाजिक संरचनाएँ दूसरी संरचनाओं की तुलना में मानसिक स्वास्थ्य की बेहतरी के लिए अधिक फायदेमन्द होती हैं । पूँजीवाद में समाज के अधिरचनात्मक विन्यास को जिस आधार पर खड़ा किया गया है, वही खराब मानसिक स्वास्थ्य की एक प्रमुख वजह है । जैसा कि सामाजिक कार्य और सामाजिक नीति के मार्क्सवादी प्रोफेसर इयान फर्ग्यूसन ने तर्क दिया है, “पूँजीवाद, जिसके भीतर हम रहते हैं, वह एक ऐसी आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था है जो मानसिक–स्वास्थ्य समस्याओं को काफी अधिक बढ़ा देने के लिए जिम्मेदार है जिसे हम आज दुनियाभर में देख रहे हैं । मानसिक संकट का निवारण केवल “शोषण और उत्पीड़न से मुक्त समाज में” ही सम्भव है ।(9)


आगे की पंक्तियों में, मैंने ब्रिटेन का उदाहरण देते हुए और मार्क्सवादी एरिक फ्रॉम के मनोविश्लेषणात्मक फ्रेमवर्क का उपयोग करते हुए, विकसित पूँजीवादी देशों में मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति का संक्षेप में वर्णन किया है, जो इस बात पर जोर देता है कि सभी मनुष्यों की कुछ आवश्यकताएँ हैं जिन्हें पर्याप्त मानसिक स्वास्थ्य सुनिश्चित करने के लिए पूरा किया जाना जरूरी है । फर्ग्यूसन के दावे का समर्थन करते हुए, मेरा तर्क है कि मानसिक स्वास्थ्य के अनुभव और व्यापकता के निर्धारण में पूँजीवाद की महत्वपूर्ण भूमिका है, क्योंकि इसका संचालन वास्तविक मानवीय आवश्यकता के साथ मेल नहीं खाता है । इस संक्षिप्त विवरण में मानसिक–स्वास्थ्य सेवाओं के उपयोगकर्ताओं के राजनीतिक रूप से जागरूक आन्दोलन का चित्रण शामिल होगा जो हाल के वर्षों में ब्रिटेन में उभरा है और जो खराब मानसिक स्वास्थ्य की जीववैज्ञानिक व्याख्या को चुनौती देते हुए इस समस्या के केन्द्र में असमानता और पूँजीवाद को पहचानने का आह्वान करता है ।

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