अनुवादक की ओर से
लगभग 20 साल पहले फ्रित्ज पापेनहाइम की किताब द एलिएनेशन ऑफ मॉर्डन मैन पढ़ने का सुझाव और उसकी फोटो कॉपी मेरे एक अजीज दोस्त ने दी थी। उसे पढ़ना मेरे लिए एक ही साथ दो तरह के अनुभव से गुजरना था। एक तरफ किताब का विषय-- अलगाव, अजनबीयत या बेगानापन, जिससे नयी कविता, नयी कहानी जैसी साहित्यिक धाराओं तथा काफ्का, कामू और सार्त्र जैसे अस्तित्ववादियों की रचनाओं के जरिये परिचय हुआ था और जिसने एक अनाड़ी पाठक के रूप में मुझे खूब उलझाया था, उसका खुलासा लेखक ने बहुत ही दिलचस्प और कायल बना देने वाली शैली में किया था। दूसरी ओर विषय की गम्भीरता और जटिलता के अनुरूप इसकी भाषा का अवरोध और अड़चन तथा जगह–जगह जर्मन और फ्रांसिसी लेखकों की किताबों के हवाले। कुल मिलाकर इस किताब से गुजरना मेरे लिए किसी पहाड़ी इलाके की यात्रा के दौरान खड़ी चढ़ाई चढ़ने जैसा था जिसमें हर मोड़ पर एक और दुगर्म चढ़ाई दिखती है, लेकिन हर पड़ाव पर जो अदभुत और मनोहर दृश्य सामने आते हैं उन्हें निहारते हुए हमारे कदम खुद–ब–खुद आगे बढ़ते चले जाते हैं। तभी यह इच्छा मन में जागी थी कि इसका हिन्दी अनुवाद हो जाता तो कितनी खुशी की बात होती।
शीर्षक से ही स्पष्ट है कि यह किताब अपने आस–पास की दुनिया से अलग–थलग, अलगावग्रस्त व्यक्ति की लाचारी और दुर्दशा के बारे में है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद पश्चिमी पूँजीवादी देशों में मनुष्य के अस्तित्व पर बढ़ते खतरे के प्रति बेचैनी, हताशा–निराशा और असहायता अपने चरम पर थी। काफ्का, कामू, सार्त्र, रिल्के और थामस वॉल्फ ने अपनी रचनाओं में अलगाव के सवाल को पुरजोर तरीके से उठाया और दुनिया भर के लोगों का ध्यान आकर्षित किया। पूँजीवादी चरम संकट, उसके नतीजे के तौर पर फासीवाद का उद्भव, यातना शिविर, युद्ध की विभीषिका और मनुष्य के अस्तित्व पर मंडराते संकट के खिलाफ यह व्यक्तिगत अस्मिता की तलाश कर रहे बुद्धिजीवयों का विद्रोही स्वर था।
भारत में अस्तित्ववादी विचारधारा नयी कविता के रूप में प्रकट हुई, लेकिन इसकी शुरुआत ही उस दौर में हुई जब खुद सार्त्र जैसे अस्तित्ववादी इससे मुक्त होकर मार्क्सवाद की ओर बढ़ चले थे। हमारे यहाँ पराजयबोध और हताशा–निराशा की अभिव्यक्ति आत्मनिर्वासन, संत्रास, घुटन, ऊब, क्षोब, भीड़ में अकेले व्यक्ति की लाचारी, सामाजिक मूल्यों–सम्बन्धों का नकार, विक्षिप्तता, बेचैनी, दुस्वप्न, आत्मभर्त्सना और आत्महत्या जैसे मनोभावों के ग्राफिक चित्रण में हुई। लेकिन नयी कविता के अधिकांश कवियों पर आत्मपरक, मनोगत और जनविमुख धारणाओं का इतना अधिक प्रभाव था कि वे पाठकांे को चरम निराशा की गर्त में या अन्धेरे बन्द कमरे में या बन्द गली के आखिरी मुकाम पर असहाय छोड़ने के अलावा कुछ दे नहीं पाये।
अलगाव के बारे में अपने अन्तिम निष्कर्षों के समर्थन में लेखक ने कार्ल मार्क्स और फर्दिनान्द टोनीज की रचनाओं पर विस्तार से चर्चा की है।
टोनीज के मुताबिक अलगाव का मूल कारण यह पूँजीवादी व्यवस्था है जो लोगों के पुराने समुदाय गेमाइनशैफ्ट को दिनों–दिन गेसेल्शाफ्ट की ओर धकेलती गयी है।
कार्ल मार्क्स की प्रारम्भिक रचनाओं विशेषकर 1844 की अर्थशास्त्र और दर्शन सम्बन्धी पाण्डुलिपियाँ, जर्मन विचारधारा, हीगेल की रचना अधिकार का दर्शन की आलोचना, जेम्स मिल पर टिप्पणी, यहूदी प्रश्न के बारे में इत्यादि में अलगाव की समस्या की विवेचना की गयी है। मार्क्स की नजर में अलगाव का इतिहास दरअसल पूँजीवाद का इतिहास है। उन्होंने चार तरह के अलगाव को रेखांकित किया है। पहला, उत्पादन के साधनों पर निजी मालिकाने के चलते श्रमिक वर्ग का उत्पादन के औजारों से अलगाव। दूसरा, श्रम–विभाजन के कारण श्रमिक वर्ग का उत्पादन की प्रक्रिया से अलगाव। तीसरा, श्रमिक वर्ग को अपने उत्पाद का नियंत्रण और उपभोग करने का अधिकार नहीं होने के कारण अपने श्रम के उत्पाद से अलगाव। चैथा, सम्पत्ति के मालिकों और श्रम–शक्ति बेचने वाले श्रमिकों के बीच का अलगाव। अलगाव के ये चार स्रोत ही पूँजीवादी समाज में हर कहीं हर क्षण अलगाव के विभिन्न रूपों को जन्म देते हैं।
इस किताब पर आप सुधी पाठकों की प्रतिक्रिया और सुझाव का हमें बेसब्री से इन्तजार रहेगा।
--दिगम्बर
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