प्रकाशकीय
सर्वहारा का अधिनायकत्व उत्पादन के विकास के साथ वर्गों के उद्भव और वर्ग संघर्ष के जरिये अन्तत: सभी वर्गों के उन्मूलन के मार्क्सवादी सिद्धान्त का अभिन्न अंग है। इसीलिए यह मार्क्सवाद का सारतत्व है। मार्क्सवाद ने स्थापित किया है कि “पँूजीवादी और साम्यवादी समाज के बीच एक के दूसरे में क्रान्तिकारी रूपान्तरण का काल होता है। इसका समवर्ती एक राजनीतिक संक्रमण का काल भी है, जिसमें राज्य सर्वहारा के क्रान्तिकारी अधिनायकत्व के सिवा और कुछ नहीं हो सकता।”
सर्वहारा अधिनायकत्व के सवाल पर जब बुर्जुआ लोकतंत्रवादी मार्क्सवादी सोच का सामना करने में असफल रहे तो इस सवाल पर मार्क्सवाद में घालमेल करने और उसे विकृत करने की जिम्मेदारी मार्क्सवाद के भीतरघातियों, यानी संसोधनवादियों और नव–संसोधनवादियों ने अपने ऊपर ले ली। “पेरिस कम्यून” के जमाने में लासाल ने “मुक्त राज्य” का ढिंढोरा पीटा, बाद में काउत्सकी ने “संसदीय रास्ते”, ख्रुश्चेव, बे्रझनेव जैसे सोवियत संसोधनवादियों के पाखण्डी गिरोह ने “सारी जनता का राज्य” और गद्दार लिन प्याओ और ल्यू शाओ ची ने “वर्ग संघर्ष की समाप्ति” का शोर मचाया था। तमाम अवसरवादियों, संसोधनवादियों और भीतरघातियों ने इस सवाल पर विभ्रम पैदा करने का कोई मौका हाथ से जाने नहीं दिया। इसी का परिणाम है कि आज समाजवाद की हार के युग में समाजवाद के पैरोकारों के बीच भी सर्वहारा के अधिनायकत्व के सवाल पर विभ्रम की स्थिति है।
चीन की महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान उसके नेताओं ने सर्वहारा अधिनायकत्व के सवाल को बहुत गम्भीरता से लिया था। क्रान्तिकारी बुद्धिजीवियों से लेकर दूर देहात के कार्यकर्ताओं के बीच इस सवाल पर साफ समझदारी स्थापित करने के लिए चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने “पीकिंग रिव्यू” में 1970 के दशक में इस विषय पर प्रश्न–उत्तर के रूप में 12 लेखों की एक सृंखला छापी थी। प्रस्तुत पुस्तक उन्हीं लेखों का हिन्दी अनुवाद है।
--अन्तरराष्ट्रीय प्रकाशन
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