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नयी पीढ़ी के लिए गोर्की, प्रेमचन्द, लु शुन

80 /-  INR
उपलब्धता: स्टॉक में है
कैटेगरी: आत्मकथा/जीवनी
भाषा: हिन्दी
आईएसबीएन: 81-87772-63-8
पृष्ठ: 168
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अनुक्रम

प्रथम खंड
                1–           गोर्की : बचपन, शिक्षा और लेखन         17
                2–           प्रेमचन्द : बचपन, शिक्षा और लेखन       37
                3–           लू शुन : बचपन, शिक्षा और लेखन         55

द्वितीय खंड
                1–           उपन्यास और जन–जीवन                                     71
                2–           नाटक और दर्शक                                               88
                3–           आजादी और प्रकाश के लिए संघर्ष की कहानियाँ     101
                4–           कहानी की ठोस जमीन के निर्माता प्रेमचन्द             108
                5–           मौन विरोध की मुखर कहानियाँ                            119
                6–           कला के शीर्ष पर दहकती लू शुन की कहानियाँ       126

तृतीय खंड
                1–           लेखन की तैयारी के बाबत                        139
                2–           कला और साहित्य के बारे में कुछ विचार     149
                3–           जीवन और साहित्य में घृणा का स्थान           157
 

दो शब्द

मानव जाति के इतिहास के बारे में अपनी राय प्रकट करते हुए गोर्की ने लिखा है–– “मानव जाति का इतिहास यूनान और रोम से नहीं, भारत और चीन से आरम्भ करना चाहिए।” इसी प्रकार अ– सुर्कोव के नाम प्राचीन काल के महाकाव्यों में और पौराणिक तत्त्वों के बारे में लिखे गये पत्र में उन्होंने सलाह दी है कि विश्व–साहित्य का इतिहास ‘इलियाड’ और ‘ओडेसी’ से नहीं, बल्कि ‘हेसियोदे’ और पूरब की प्राचीनतम पौराणिक कथाओं से आरम्भ करना चाहिए। लगता है कि गोर्की का संकेत भारत की ओर था।

इसी प्रकार हम देखते हैं कि भारत समेत पूरब के अन्य देशों की लोककथाओं और दंतकथाओं के गोर्की बड़े प्रशंसक थे। इनके बारे में उन्होंने लिखा–– “शब्दों के इस सुन्दर ताने–बाने का प्राचीन काल में जन्म हुआ। इसके बहुरंग रेशमी धागे सारी दुनिया पर फैल चुके हैं और उन्होंने उसे असाधारण सौन्दर्य वाले शब्दों में कालीन से ढँक दिया है।”

प्राचीन पूर्वी साहित्य के ऐसे ऊँचे मूल्यांकन के परिणामस्वरूप ही सम्भवत: गोर्की ने ‘विश्व–साहित्य’ प्रकाशन गृह की प्रकाशन–योजना तैयार करते समय ‘रामायण’, ‘महाभारत’ और ‘पंचतंत्र’ को भी, जिन्हें वह विश्व–साहित्य के मूल्यवान रत्न मानते थे, उसमें स्थान दिया।

लेनिन की तरह गोर्की ने भी लिखा था कि “भारत में इस बात का विश्वास दिलाने वाली आवाज अधिकाधिक जोर पकड़ती जा रही है कि भारत में अंग्रेजी राज के दिन पूरे हो गये हैं।”

‘एक युगपुरुष का जन्म’ नामक किताब में बड़े कायदे से बताया गया है कि मार्क्स के मनोमस्तिष्क पर यूरोपीय साहित्य ने क्या प्रभाव डाला और बाद के दिनों में स्वयं मार्क्स के विचारों ने संसार भर के साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों को कैसे प्रभावित किया। इसी तरह कहा जाता है कि गोर्की के साहित्य ने तमाम उत्पीड़ित राष्ट्रों को वाणी प्रदान की। संघर्ष से जूझते श्रमिकों को ऊर्जा और आत्मिक बल से लैस किया। साथ ही वहाँ के लेखकों को भी उत्प्रेरित किया और जन–गण की वाणी को हुँकार में बदलने की पे्ररणा दी। इस बात की झलक लू शुन के आत्मकथ्य में भी देखने को मिलती है। प्रेमचन्द का ‘प्रेमाश्रम’ नामक उपन्यास, ‘प्रेमचन्द घर में’ तथा गोर्की की मृत्यु पर आयोजित शोकसभा में दिये गये उनके उद्गार इस बात का प्रमाण हैं कि वे गोर्की को कितना दिल से चाहने लगे थे।

गोर्की और लू शुन के बीच तो अत्यधिक निकटता भी बन गयी थी। जीवन के अंतिम दौर में लू शुन जब गम्भीर रूप से बीमार पड़े, गोर्की ने लू शुन को रूस में आकर इलाज कराने की सलाह दी। लेकिन उन्होंने नहीं माना। उनका उत्तर था, “जब दूसरे लड़ रहे हैं, प्राणों की आहुति दे रहे हैं, मैं चारपाई में पड़कर आराम नहीं कर सकता। काम करते हुए कुछ बरस जीना, बिना काम करते हुए अधिक जीने से बेहतर है।”

तो जनता के प्रति यह जो प्यार है, वह गोर्की, लू शुन और प्रेमचन्द तीनों ही लेखकों में समान रूप से देखने को मिलता है। संघर्ष से जूझती, उत्पीड़न और शोषण के विरुद्ध लड़ती और दमनचक्र के खिलाफ जोरदार प्रतिरोध खड़ा करती जनता किन अग्रगामी लेखकों को प्रिय न होगी?

आज इस मानव–द्रोही समय मंे जब सामाजिक सरोकार की बात करना भी खतरनाक साबित किया जा रहा हो, ऐसे समय में गोर्की, प्रेमचन्द और लू शुन जैसे लेखकों का महत्त्व अत्यधिक रूप से बढ़ जाता है।

गोर्की, प्रेमचन्द और लू शुन का स्मरण यों ही नहीं है। आज भी भारतीय जनता बड़े हुलस के साथ कहती है, “काश! भारत, रूस और चीन एक झंडे के नीचे होते तो दुनिया का नक्शा कुछ और ही होता।”

–– राणा प्रताप

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