अनुवाद : दिनेश पोसवाल
यह पुस्तक डॉ. नॉर्मन बेथ्यून के जीवन और उनके कामों पर केन्द्रित है। एक चिकित्सक के रूप में अपने पेशे के लिए समर्पित डॉ. नॉर्मन बेथ्यून के अनूठे जीवन का परिचय हासिल करना एक व्यक्ति के जीवन से परिचय मात्र नहीं है। डॉ. बेथ्यून को जानना चिकित्सा विज्ञान के इतिहास और उस गौरवशाली परम्परा को समझाना है जिसमें चिकित्सकों को भगवान का दर्जा दिया जाता था। इसके साथ ही उनका जीवन उन चिकित्सकों की बेचैनी, छटपटाहट और निराशा को भी अभिव्यक्ति प्रदान करता है जो चिकित्सकीय पेशे को मानवता की सेवा का माध्यम समझते हैं, जो दूसरे डॉक्टरों की तरह हिप्पोक्रेटस के नाम पर ईमानदारी से अपने पेशे का निर्वाह करने की सिर्फ रस्मअदायगी के लिए शपथ नहीं लेते हैं--
लेकिन मजदूरों और गरीबों के दरम्यान काम करते हुए उन्हें शीघ्र ही इस बात का एहसास हो गया कि बीमारी को जड़ से मिटाने के लिए चिकित्सा को एक ऐसे नैसर्गिक अधिकार के रूप में स्वीकार किये जाने की जरूरत है जिसके लिए राष्ट्र को जिम्मेदारी उठानी चाहिए। उन्होंने जोरशोर से हर उपलब्ध मंच से सामाजिक चिकित्सा को एक संवैधानिक अधिकार बनाने के लिए आवाज उठायी। लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था इसके लिए तैयार नहीं थी। चिकित्सा सेवाएँ बेहद महँगी थी। उस दौर में भी एक सर्जन बनने के लिए काफी ज्यादा पैसों की जरूरत होती थी। चिकित्सा विज्ञान उस दौर में प्रवेश कर चुका था जहाँ चिकित्सा उस खास वर्ग की सेवा के लिए समर्पित थी जो उसकी कीमत चुका सकता था।
उस समय सोवियत संघ में समाजवादी क्रान्ति लगभग डेढ़ दशक सफलतापूर्वक पूरा कर चुकी थी और उसकी अदभुत, लगभग चमत्कारिक, उपलब्धियाँ दुनियाभर के पूँजीवादी व्यवस्था से खिन्न लोगों का ध्यान अपनी ओर खींच रही थी। जिस समय वित्तीय कारणों के चलते कनाडा की सरकार ने बेथ्यून के कई अनूठे मौलिक प्रस्तावों को स्वीकार नहीं किया था, तभी उन्हें सोवियत संघ की यात्रा करने का अवसर मिला जहाँ उन्हें सोवियत सरकार की चिकित्सा प्रणाली का अध्ययन करने का अवसर मिला। वहाँ चिकित्सा विज्ञान में नये–नये शोध किये जा रहे थे और बेहद उन्नत चिकित्सा सभी लोगों को, विशेष तौर से गरीबों और मजदूरों को, समान रूप से उपलब्ध थी।
सोवियत संघ से लौटने के पश्चात, बेथ्यून के सामने यह एकदम स्पष्ट था कि समाज का आर्थिक आधार बदले बिना बीमारियों के खिलाफ निर्णायक संघर्ष नहीं किया जा सकता।
इन सब परिस्थितियों ने डॉ बेथ्यून के लिए एक मार्ग प्रशस्त किया जिसने उन्हें सीधे तौर पर क्रान्तिकारी संघर्षों का हिस्सा बना दिया। उस समय के बहुत से चिकित्सक इन क्रान्तिकारी संघर्षों में शामिल थे और उनमें से कुछ चिकित्सक के रूप में उन समूहों में शामिल हो गये थे जो सीधे मोर्चों पर लड़ाई का हिस्सा बन चुके थे।
ऐसे ही एक संघर्ष में शामिल होने के लिए, कनाडा के क्रान्तिकारी चिकित्सकों का प्रतिनिधित्व करते हुए डॉ बेथ्यून स्पेन पहुँचे, जहाँ हिटलर और मुसोलिनी से संरक्षित और समर्थित सैन्य अभियान के खिलाफ जनता का संघर्ष जोर पकड़ रहा था।
स्पेन से लौटने के बाद, बेथ्यून क्रान्तिकारी संघर्षों में हिस्सा लेने के लिए चीन चले गये। वहाँ एक बेहद पिछड़े समाज में, एक चिकित्सक के रूप में, गुरिल्ला टुकडियों के साथ उनके काम ने उन्हें चीन में एक किवदंती और राष्ट्रीय नायक बना दिया। दुनिया के अन्य हिस्सों से बहुत से दूसरे लोग भी इन संघर्षों में शामिल होने के लिए चीन पहुँचे। इनमें भारत के डॉक्टर कोटनीस भी शामिल थे जिन्होंने लड़ाई में डॉ बेथ्यून के शहीद होने के बाद उनके कार्य को आगे बढ़ाने का काम अपने हाथ में ले लिया था। डॉ कोटनीस भी अपने कार्य के दौरान चीन की आजादी के संघर्ष में लड़ते हुए शहीद हो गये थे।
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