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युवक संघों के कार्य

10 /-  INR
उपलब्धता: स्टॉक में है
भाषा: हिन्दी
आईएसबीएन: 8187784520
पृष्ठ: 24
प्रकाशक: अन्तरराष्ट्रीय प्रकाशन
अनुवादक: रमेश सिन्हा
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अनुवादक की ओर से

“युवक संघों के कार्य” के सम्बन्ध के लेनिन का यह प्रसिद्ध भाषण यद्यपि 1917 की सोवियत समाजवादी क्रान्ति के बाद सोवियत संघ के युवकों को दृष्टि में रख कर दिया गया था, किन्तु इसमें दरअसल लेनिन ने समाजवादी आन्दोलन और कार्य प्रणाली से सम्बन्धित कुछ ऐसे मूलभूत तथा जीवन्त प्रश्न उठाये हैं कि यह हम सभी के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बन गया है। इसे पढ़कर वे सभी लोग लाभ उठा सकते हैं जो नयी पीढ़ी की समाजवादी शिक्षा–दीक्षा में, समाजवादी परिवर्तन और क्रान्ति में तथा नये समाजवादी मूल्यों में दिलचस्पी रखते हैं।

युवकों के माध्यम से, लेनिन ने इस भाषण में सभी समाजवादियों का मार्ग–दर्शन किया है।

युवकों की शिक्षा की आवश्यकता पर बल देते हुए वह कहते हैं–– “आम युवा वर्ग के सामने...प्रस्तुत कामों को संक्षेप में केवल एक शब्द में यह कह कर व्यक्त किया जा सकता है कि : सीखो!” एकमात्र कार्य तो वर्तमान समाजवादियों और क्रान्तिकारियों का यह नहीं हो सकता, किन्तु क्या यह भी उनका एक प्रमुख कार्य आम नहीं है–– “केवल युवकों का ही नहीं, बल्कि सभी का?”

बिना पढ़े–लिखे और चीजों को गहराई से समझे न तो कोई सजग क्रान्तिकारी बन बन सकता है, और न उस समाज का ही निर्माण कर सकता है जिसकी और हमें बढ़ना है और जिसके लिए हमारा देश कराह रहा है।

‘सीखो’ पर क्या सीखो और कैसे सीखो–– यह भी लेनिन ने इस भाषण में काफी विस्तार से बताया है।

जो बातें इस सन्दर्भ में उन्होंने कहीं हैं, जैसे कि : “...तुमने यदि यह नतीजा निकालने की कोशिश की कि कोई आदमी मानवजाति द्वारा अर्जित की गयी ज्ञान–राशि को आत्मसात किये बिना कम्युनिस्ट बन सकता है, तो तुम बहुत बड़ी भूल करोगे।”...या यह कि : “यह सोचना कि उस समग्र ज्ञान–राशि को उपार्जित किये बिना जिसका कम्युनिस्ट स्वयं सफल है–– कम्युनिसट नारों तथा कम्युनिस्ट विज्ञान के निष्कर्षों को रट लेना ही काफी होगा–– गलत होगा।”...इन्हें पढ़कर कुछ लोग चैंक सकते हैं, उनकी गलत और संकीर्णतावादी समझ को इनसे आघात लग सकता हैय पर लेनिन बताते हैं कि ज्ञान का द्वन्द्ववाद ऐसा ही है।

फिर लेनिन ने, इसी सन्दर्भ में, कम्युनिस्ट नैतिकता का प्रश्न उठाया है। उन्होंने पूछा है : “क्या कम्युनिस्ट नैतिकता जैसी भी कोई चीज है?” फिर उत्तर दिया है : “बेशक है...”और बताया है कि वह क्या है।

ऐसे समय में जब कि अनेक निम्न पूँजीवादी तथा “उग्र क्रान्तिकारी” सदाचार या नैतिकता की बात की दकियानूसी या पाखण्डी कह कर उसकी खिल्ली उड़ाने को तत्पर रहते हैं, और “जिससे काम निकल आये वही ठीक है।...” के “सद्धान्त” की वकालत करते हैं, क्या इस प्रश्न का हम सभी के लिए महत्त्व नहीं है?

साथ ही, लेनिन ने अ/ययन और रोजमर्रा के व्यवहारिक काम की एकता पर जोर दिया है और युवकों से कहा है कि उन्हें एक संगठित और “अनुशासित तूफानी दस्ते” की तरह काम करना चाहिए तथा हर पहलकदमी और उद्यम का परिचय देना चाहिए। लफ्फाजी और हवाई नारों से बचते हुए, “युवक कम्युनिस्ट संघ का काम यह भी है कि गाँव हों या शहर का कोई मोहल्ला हर जगह वह लोगों की सहायता करने के काम को संगठित करे...।”

एक चीज और है जो लेनिन की इन्हीं सीखों से हमारे आज के युवा आन्दोलन के लिए निकलती हैय वह यह है कि म/यम वर्गीय नौजवानों और छात्रों के आन्दोलन के साथ शहर के मजूदर नौजवानों और देहात के युवा खेत मजदूरों और विद्यार्थियों को अभिन्न रूप से जोड़ा जाय। इससे आन्दोलन में स्थिरता और सुदृढ़ता आने के साथ–साथ, इस खतरे से भी बचने में उसे मदद मिलेगी कि वह गुमराह हो जाय या ऐसे वर्गों, आन्दोलनों और नारों के साथ जुड़ जाय जो क्रान्ति को आगे बढ़ाने के बजाय उल्टे पीछे की तरफ ढ़केल दें।

भाषण में जो उपशीर्षक दिये गये हैं वे पाठकों की सुविधा के लिए हमने दे दिये हैं। इसी तरह कहीं–कहीं लम्बे पैराग्राफ तोड़ दिये गये हैं अथवा कहीं–कहीं जोर देने के लिए कुछ अंश काले टाइपों में दे दिये गये हैं।

––रमेश सिन्हा

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