भूमिका
पूँजीवादी और समाजवादी समाज के सन्दर्भ में लोकतंत्र के स्वरूप को लेकर क्रान्तिकारी और संशोधनवादी मार्क्सवादियों के बीच तीखे विवाद हुए है। वैज्ञानिक समाजवाद के प्रवर्तकांे मार्क्स एंगेल्स और उनके उत्तराधिकारी क्रान्तिकारियों ने लोकतंत्र के मुद्दे पर विरोधियों द्वारा फैलाये गये विभ्रमों और गलत विचारों का खंडन किया और तीखे वैज्ञानिक संघर्ष के दौरान सही नजरिये को स्थापित किया।
फ्रांस की क्रान्ति (1789–94), स्वत्रंतता, समानता और बंधुत्व के नारे और झंडे के साथ हुई थी। इसका लक्ष्य कानून की नजर में सम्पूर्ण जनगण के लिए समानता और लोकतंत्र की बहाली थी। इस क्रान्ति के राजनीतिक घोषणापत्र–– मनुष्य और नागरिकों के अधिकार की घोषणा ने मध्य युगीन, सामन्ती निरंकुशता का अन्त करके एक नये युग की शुरुआत करने में अहम भूमिका निभायी। लेकिन बहुत जल्दी ही यह साफ हो गया कि पूँजीवादी लोकतंत्र के अन्तर्गत सबके लिए सामाजिक समानता और लोकतांत्रिक अधिकार एक धोखे के सिवा कुछ नहीं। फ्रांसीसी क्रान्ति के दौरान ही रोबेसपियरे और तमाम क्रान्तिकारियों ने यह सवाल उठाया था तथा आगे चलकर काल्पनिक समाजवादियों ने भी पूँजीवादी लोकतंत्र के खोखलेपन को आलोचना का मुद्दा बनाया था।
आगे चलकर मार्क्स–एंगेल्स–लेनिन ने ऐतिहासिक परिप्रेक्ष में लोकतंत्र के प्रश्न पर गहराई से विचार प्रस्तुत किया। उन्होंने यह स्थापित किया कि पूँजीवादी व्यवस्था के अन्तर्गत लोकतांत्रिक अधिकारों को अमली जामा न पहनाये जाने का कारण महज कुछ व्यक्तियों या संस्थाओं की अकर्मण्यता या असफलता नहीं है। इसका असली कारण पूँजीवादी व्यवस्था के मूलाधार में यानी आर्थिक व्यवस्था में ही निहित है जो श्रम के शोषण पर और पूरी तरह असमानता पर आधारित है तथा निरन्तर असामानता को बढ़ाती है। जिस समाज में उत्पादन के साधनों और सामाजिक सम्पति पर मुट्ठी भर अल्पमत वाले शोषक वर्गों का कब्जा हो, वहाँ बहुमत के अधिकारों की बात, बहुसंख्य मेहनतकश जनता की सामाजिक–राजनीतिक समानता की बात करना बेमानी है। पूँजीवादी समाज में आर्थिक असमानता ही हर चीज को तय करती है और जब तक यह असमानता कायम है, तब तक सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक समानता की बात करना निरर्थक है। पूँजीवादी व्यवस्था की ऐतिहासिक सीमा है कि यहाँ सही मायने में लोकतंत्र लागू नहीं हो सकता। उत्पादन के साधनों पर निजी मालिकाने का उन्मूलन तथा उसके साथ ही उत्पादन सम्बन्धों को और तमाम तरह के असमान सामाजिक सम्बन्धों को समाप्त करके ही सही मायने में लोकतंत्र की स्थापना सम्भव है। समाजवादी लोकतंत्र ही सही अर्थों में बिना भेदभाव के सम्पूर्ण मानवजाति के लिए स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व का मार्ग प्रशस्त करेगा।
इस संकलन में लेनिन की रचनाओं के उद्धरणों से इन्हीं बातों को स्थापित किया गया है। साथ ही समाजवादी निर्माण के दौरान लोकतंत्र की स्थापना की समस्याओं को भी व्यवहारिक प्रश्नों से जोड़कर बताया गया है। उम्मीद है कि यह संकलन लोकतंत्र के मुद्दे पर उठने वाले तमाम सवालों के बारे में सही राय हासिल करने में सहायक होगा।
--अन्तरराष्ट्रीय प्रकाशन
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