परिचय
आज से लगभग डेढ़ सदी पहले, 18 मार्च, 1871 के दिन पेरिस के मजदूरों ने अपने देश के गद्दार पूँजीपति वर्ग के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह कर दिया था। तत्कालीन पूरी दुनिया उस दिन “कम्यून जिन्दाबाद!” के नारों से चैंक उठी थी। वह फ्रांस के नेपोलियन तृतीय का जमाना था।
पूँजीपति वर्ग के खिलाफ, मजदूरों की यह पहली क्रान्ति थी। इतिहास में पहली बार मजदूरों ने अपनी सरकार कायम की थी। इस सरकार को मार्क्स ने “नये समाज का शानदार अग्रदूत” बताया था और लेनिन ने उसे “सोवियत सत्ता का बीज” कहा था।
“साधारण मजदूरों” की वह सरकार अपनी भलमनसाहत तथा मजदूरों की शराफत और विशाल–हृदयता का शिकार हुई थी। 21 मई को देश के पूँजीपतियों ने जर्मनी से मिलकर उस पर हमला कर दिया और “कम्यून” को खून में डुबो दिया। सात दिन तक कम्यून के मजदूर योद्धा अपनी सत्ता को बचाने की कोशिश करते रहे। इस प्रयास में तीस हजार मजदूर मारे गये। अन्य पैंतीस हजार को जेलों में डाल दिया गया। कुल मिला कर पेरिस के लगभग एक लाख “सर्वश्रेष्ठ लोगों” को जान से हाथ धोना पड़ा।
वास्तव में, मार्क्स ने, जो उस समय जीवित थे, छ: महीने पहले ही फ्रांस के मजदूरों को आगाह कर दिया था कि ऐसी कोई कार्रवाई करने के उकसावे में वे न आएँ, किन्तु जब मजदूर संघर्ष में कूद पड़े तो पूरे तौर से वे उनके साथ हो गये और उनकी “ऐतिहासिक पहलकदमी” और “आकाश तक को प्रकम्पित” कर देने वाली उनकी बहादुरी का अभिनन्दन करते हुए उन्होंने कहा कि “महानता के इतने बड़े इतिहास में दूसरी मिसाल नहीं मिलती!” और, कम्यून के असफल हो जाने के बाद, फिर मजदूर वर्ग की भावी क्रान्तियों के लिए उन्होने अत्यन्त महत्वपूर्ण सैद्धान्तिक और व्यावहारिक सबक उससे निकाले।
इन्हीं सबकों को क्रान्तिकारी शोषित श्रमजीवियों को अच्छी तरह समझाकर, महान लेनिन ने 1917 की रूसी नवम्बर क्रान्ति के लिए रास्ता तैयार किया और उसे विजयी बनाया।
“कम्यून के सबक” और “कम्यून की स्मृति” अपनी मुक्ति के लिए लड़ने वाली श्रमजीवी मानवता की महान थाती है। उन्हें उसे सदा स्मरण रखना चाहिए। आशा है कि इस पुस्तिका में संग्रहीत लेनिन की दोनों रचनाओं से इस काम में मदद मिलेगी।
–– सम्पादक
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