फ्रेडरिक एंगेल्स की पहली पुस्तक
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पूंजीपति और सर्वहारा वर्ग की एक-दूसरे के सम्बन्ध में स्थिति, इन दो वर्गों के बीच संघर्ष की आवश्यकता, और अंग्रेज पूंजीपति वर्ग की मनमोहक बातों और कुकर्मों की जानकारी के लिए 'इंग्लैंड में मजदूर वर्ग की दशा' नामक पुस्तक अवश्य पढ़ी जानी चाहिए ।
इस पुस्तक का ऐतिहासिक महत्व यह भी है कि यह महान दार्शनिक और सर्वहारा- नेता फ्रेडरिक एंगेल्स की पहली पुस्तक मानी जाती है । जर्मन भाषा से अंग्रेजी अनुवाद 1887 में प्रकाशित हुआ । यह पुस्तक 1842 से 1844 के बीच मैनचेस्टर में अपने प्रवास के दौरान एंगेल्स ने लिखी थी ।
सवाल यह है कि यह पुस्तक आज क्यों पढ़ी जानी चाहिए और दिगम्बर द्वारा हिन्दी मे अनुदित इस पुस्तक के वर्ष 2020 में अन्तरराष्ट्रीय प्रकाशन से आने का क्या महत्व है । डेढ़ दशक बाद यह पुस्तक क्यों पढ़ी जानी चाहिए ।
इसका जवाब यह है कि बिना इस पुस्तक को पढ़े आप पिछले 175 वर्षों के अन्तरराष्ट्रीय मजदूर संघर्ष की बुनियादी आवश्यकता को उसके ऐतिहासिक संदर्भ में समझ ही नहीं सकते ।
पिछले 20 वर्षों में दुनियाभर में लागू हो गए नव उदारवादी आर्थिक सुधारों का मजदूर वर्ग पर क्या प्रभाव पड़ा है, इसे समझने के लिए भी यह पुस्तक पूर्व पीठिका तैयार करती है ।
स्वाभाविक रूप से अपने शुरूआती और दो वर्षों के स्थानीय अनुभव की रिपोर्ट के रूप में लिखी यह पुस्तक इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति से उपजे मजदूर सर्वहारा और किसान सर्वहारा वर्ग की दशा को लेकर एक हताशा का प्रभाव छोड़ती है । इस निराशाजनक स्थिति से उबरने के लिए और नयी रौशनी का सहभागी होने के लिए आपको दिगम्बर द्वारा ही अनुदित माइकल डी येट्स की पुस्तक ' क्या मजदूर वर्ग दुनिया को बदल सकता है ?' भी ज़रूर पढ़नी चाहिए जिसका प्रकाशन इत्तफ़ाकन पहले हो चुका है ।
ग़ज़ब यह है कि मजदूर वर्ग की ज़िंदगी में बुनियादी परिवर्तन लाने वाली , सूत कातने की जेनी की खोज 1764 में एक मजदूर ने ही की थी जिसने वाष्प शक्ति की खोज के साथ न केवल पूंजीपति वर्ग पैदा किया, उसके साथ ही नया वर्ग समाज भी पैदा कर दिया ।
पुस्तक बताती है कि 'प्रतिस्पर्धा सबके खिलाफ सबकी लड़ाई की पूर्ण अभिव्यक्ति है, जो आधुनिक सभ्य समाज को शासित करती है ।........खुद अपने बीच मजदूरों की यह प्रतिस्पर्धा मजदूर के ऊपर इसके प्रभाव के लिहाज से उनकी वर्तमान स्थिति को देखते हुए सबसे खराब पहलू है, पूंजीपति वर्ग के हाथों में मजदूर वर्ग के खिलाफ सबसे धारदार हथियार है ।'
'न्यूनतम मजदूरी है क्या ?
'यह अधिकतम पूंजीपति वर्ग के अपने बीच की प्रतिस्पर्धा से तय होती है ।'
'मजदूर कानूनन और असलियत में सत्ताधारी वर्ग का गुलाम होता है और उसे माल के टुकड़े की तरह बेचा जाता है, उपभोक्ता माल की तरह उसकी कीमत घटती बढ़ती रहती है ।'
'पूंजीपतियों ने मजदूर वर्ग के लिए केवल ये दो ही सुख ( नशा और यौनाचार ) छोड़े हैं, जबकि उन पर मेहनत और कठिनाइयों का भारी बोझ लाद दिया है, और इसका परिणाम यह है कि जीवन से कुछ पाने के लिए मजदूर इन दो भोग लिप्साओं पर अपनी पूरी ऊर्जा खपाते हैं ।'
उपयोग से उपभोग, फिर भोग और अंततः दुरुपयोग की ही सारी कहानी है पूंजीवाद की पैदाइश और प्रकोप बनता जा रहा आधुनिक विकास ।
इस पुस्तक को पढ़ते हुए मुझे गांधी का 'हिंद स्वराज' बरजस्ता याद आता रहा ।
एंगेल्स लिखते हैं --'सबके खिलाफ सबकी लड़ाई में सभी फायदे व्यक्तियों द्वारा अपने हक में हड़प लिए जाते हैं और इस तरह बहुसंख्यक लोगों को जीवन निर्वाह के साधनों से वंचित कर दिया जाता है । मशीनरी में होने वाली हर तरक्की मजदूरों को नौकरी से निकाल बाहर करती है ......हर बड़ी तरक्की बहुतेरे मजदूरों के लिए व्यापारिक संकट के बुरे नतीजे पैदा करती है, अभाव, मनहूसियत और अपराध पैदा करती है ।
जिन कलमकारों की रुचि मजदूर वर्ग के कथानक पर कहानी उपन्यास लेखन में है उन्हें यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए, विशेष रूप से इसका ' उद्योग की एकल शाखाएं' शीर्षक अध्याय । कवि भी कल्पना नहीं कर सकते कि तत्कालीन इंग्लैंड का मजदूर किन नारकीय, अमानवीय परिस्थितियों में दिन गुजार रहा था । और तब आपको लगेगा कि एंगेल्स की यह किताब इक्कीसवी सदी के हिंदुस्तान पर लिखी गयी है ।
इस पुस्तक को पढ़ने के बाद आपको लगेगा कि औपनिवेशिक भारत में जलियांवाला कांड करने वाली ब्रिटिश सत्ता सिर्फ हिंदुसानियों के लिए ही क्रूर नहीं थी ।
ब्रिटेन की क्रूरता और लोभ का एक लम्बा इतिहास रहा है और उपनिवेशों का बर्बर शोषण करने का उनका अपना देशी अनुभव , जो विदेशों में काम आया , खासतौर से 'इंडियन डाग्स' के लिए ।
इतने गम्भीर विषय पर लिखी इस पुस्तक की पठनीयता एकदम कथा जैसी है । वास्तव में आप सांस खींचे पूरी पुस्तक पढ़ कर ही छोड़ पाएंगे । मुझे नहीं पता कि इस पठनीयता के पीछे अनुवादक दिगंबर का कितना हाथ है ।
तीन सौ पृष्ठों की यह पुस्तक आश्चर्यजनक रूप से मात्र 180 रु में वितरक गार्गी प्रकाशन से प्राप्त की जा सकत है ।
- देवेंद्र आर्य
राणा प्रतापसंपादक-- कथान्तर
इंग्लैंड में मजदूर वर्ग की दशा-फ्रेडरिक एंगेल्स की पहली पुस्तक है। तब उनकी उम्र मात्र 24 वर्ष की थी। इस पुस्तक की रचना 1882 से 1844 के बीच हुई, जब एंगेल्स औद्योगिक क्रांति के केंद्र मैनचेस्टर में रहते थे। ग्रासरूट के स्तर पर कैसे सूक्ष्म निगाहों से काम किया जाता है, हमारे युवा रचनाकार इस बात की सीख ले सकते हैं। इस किताब का हिंदी अनुवाद दिगम्बर ने किया है और छापा है, "अंतरराष्ट्रीय प्रकाशन" ने। दोनों को साधुवाद। इस किताब के जरिए आप एक साथ कल-कारखानों की उत्पत्ति, मजदूर वर्ग की दशा-दुर्दशा और कृषक से मजदूर बनने की कहानी आपको एक साथ पढ़ने को मिलेंगे। आज प्रवासी मजदूरों पर बहुत सारी बातें हो रही हैं। उनके रहने, खाने - पीने, उनके बच्चों की शिक्षा एंव स्वास्थ्य संबंधी चर्चा भी हो रही है। लेकिन इस बात की चर्चा शायद ही हो रही है कि ये किसान आखिर गांव छोड़ने के लिए क्यों विवश हैं? मूल में तो कृषि-व्यवस्था का ध्वस्त होना, किसानों का अन्यत्र रोज़ी-रोटी के लिए पलायन और आर्थिक तंगी ही है? हमें तो यह दृश्य भी देखने पडे कि कैसे करोना की मार झेलते ये मजदूर गांव लौटे और पुनर्वापसी भी तत्काल शुरू हो गई। पुन: नरक वापसी। जगदीश चंद्र ने उपन्यास लिखा है न-धरती, धन, न अपना।
तो भाई जान। मजदूरों की स्थिति उनके जन्म से ही खराब रही है। आप इस किताब का अवलोकन अवश्य करें, यह मेरी आप से गुजारिश है। मैं अभी किताब के डिटेल्स में नहीं जाऊंगा। डिटेल्स आपको स्वयं प्राप्त करने होंगे, तभी आप इस किताब के साथ संगति बिठा सकते हैं। मैं तो बस उस असंगठित मजदूरों के संगठित होने के दिन - रात सपने देखा करता हूं। कोई तो सामने आए और इन कराहते हुए कामों को अंजाम दे?
--राणा प्रताप, संपादक-- कथान्तर
फ्रेडरिक एंगेल्स की पहली पुस्तक
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पूंजीपति और सर्वहारा वर्ग की एक-दूसरे के सम्बन्ध में स्थिति, इन दो वर्गों के बीच संघर्ष की आवश्यकता, और अंग्रेज पूंजीपति वर्ग की मनमोहक बातों और कुकर्मों की जानकारी के लिए 'इंग्लैंड में मजदूर वर्ग की दशा' नामक पुस्तक अवश्य पढ़ी जानी चाहिए ।
इस पुस्तक का ऐतिहासिक महत्व यह भी है कि यह महान दार्शनिक और सर्वहारा- नेता फ्रेडरिक एंगेल्स की पहली पुस्तक मानी जाती है । जर्मन भाषा से अंग्रेजी अनुवाद 1887 में प्रकाशित हुआ । यह पुस्तक 1842 से 1844 के बीच मैनचेस्टर में अपने प्रवास के दौरान एंगेल्स ने लिखी थी ।
सवाल यह है कि यह पुस्तक आज क्यों पढ़ी जानी चाहिए और दिगम्बर द्वारा हिन्दी मे अनुदित इस पुस्तक के वर्ष 2020 में अन्तरराष्ट्रीय प्रकाशन से आने का क्या महत्व है । डेढ़ दशक बाद यह पुस्तक क्यों पढ़ी जानी चाहिए ।
इसका जवाब यह है कि बिना इस पुस्तक को पढ़े आप पिछले 175 वर्षों के अन्तरराष्ट्रीय मजदूर संघर्ष की बुनियादी आवश्यकता को उसके ऐतिहासिक संदर्भ में समझ ही नहीं सकते ।
पिछले 20 वर्षों में दुनियाभर में लागू हो गए नव उदारवादी आर्थिक सुधारों का मजदूर वर्ग पर क्या प्रभाव पड़ा है, इसे समझने के लिए भी यह पुस्तक पूर्व पीठिका तैयार करती है ।
स्वाभाविक रूप से अपने शुरूआती और दो वर्षों के स्थानीय अनुभव की रिपोर्ट के रूप में लिखी यह पुस्तक इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति से उपजे मजदूर सर्वहारा और किसान सर्वहारा वर्ग की दशा को लेकर एक हताशा का प्रभाव छोड़ती है । इस निराशाजनक स्थिति से उबरने के लिए और नयी रौशनी का सहभागी होने के लिए आपको दिगम्बर द्वारा ही अनुदित माइकल डी येट्स की पुस्तक ' क्या मजदूर वर्ग दुनिया को बदल सकता है ?' भी ज़रूर पढ़नी चाहिए जिसका प्रकाशन इत्तफ़ाकन पहले हो चुका है ।
ग़ज़ब यह है कि मजदूर वर्ग की ज़िंदगी में बुनियादी परिवर्तन लाने वाली , सूत कातने की जेनी की खोज 1764 में एक मजदूर ने ही की थी जिसने वाष्प शक्ति की खोज के साथ न केवल पूंजीपति वर्ग पैदा किया, उसके साथ ही नया वर्ग समाज भी पैदा कर दिया ।
पुस्तक बताती है कि 'प्रतिस्पर्धा सबके खिलाफ सबकी लड़ाई की पूर्ण अभिव्यक्ति है, जो आधुनिक सभ्य समाज को शासित करती है ।........खुद अपने बीच मजदूरों की यह प्रतिस्पर्धा मजदूर के ऊपर इसके प्रभाव के लिहाज से उनकी वर्तमान स्थिति को देखते हुए सबसे खराब पहलू है, पूंजीपति वर्ग के हाथों में मजदूर वर्ग के खिलाफ सबसे धारदार हथियार है ।'
'न्यूनतम मजदूरी है क्या ?
'यह अधिकतम पूंजीपति वर्ग के अपने बीच की प्रतिस्पर्धा से तय होती है ।'
'मजदूर कानूनन और असलियत में सत्ताधारी वर्ग का गुलाम होता है और उसे माल के टुकड़े की तरह बेचा जाता है, उपभोक्ता माल की तरह उसकी कीमत घटती बढ़ती रहती है ।'
'पूंजीपतियों ने मजदूर वर्ग के लिए केवल ये दो ही सुख ( नशा और यौनाचार ) छोड़े हैं, जबकि उन पर मेहनत और कठिनाइयों का भारी बोझ लाद दिया है, और इसका परिणाम यह है कि जीवन से कुछ पाने के लिए मजदूर इन दो भोग लिप्साओं पर अपनी पूरी ऊर्जा खपाते हैं ।'
उपयोग से उपभोग, फिर भोग और अंततः दुरुपयोग की ही सारी कहानी है पूंजीवाद की पैदाइश और प्रकोप बनता जा रहा आधुनिक विकास ।
इस पुस्तक को पढ़ते हुए मुझे गांधी का 'हिंद स्वराज' बरजस्ता याद आता रहा ।
एंगेल्स लिखते हैं --'सबके खिलाफ सबकी लड़ाई में सभी फायदे व्यक्तियों द्वारा अपने हक में हड़प लिए जाते हैं और इस तरह बहुसंख्यक लोगों को जीवन निर्वाह के साधनों से वंचित कर दिया जाता है । मशीनरी में होने वाली हर तरक्की मजदूरों को नौकरी से निकाल बाहर करती है ......हर बड़ी तरक्की बहुतेरे मजदूरों के लिए व्यापारिक संकट के बुरे नतीजे पैदा करती है, अभाव, मनहूसियत और अपराध पैदा करती है ।
जिन कलमकारों की रुचि मजदूर वर्ग के कथानक पर कहानी उपन्यास लेखन में है उन्हें यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए, विशेष रूप से इसका ' उद्योग की एकल शाखाएं' शीर्षक अध्याय । कवि भी कल्पना नहीं कर सकते कि तत्कालीन इंग्लैंड का मजदूर किन नारकीय, अमानवीय परिस्थितियों में दिन गुजार रहा था । और तब आपको लगेगा कि एंगेल्स की यह किताब इक्कीसवी सदी के हिंदुस्तान पर लिखी गयी है ।
इस पुस्तक को पढ़ने के बाद आपको लगेगा कि औपनिवेशिक भारत में जलियांवाला कांड करने वाली ब्रिटिश सत्ता सिर्फ हिंदुसानियों के लिए ही क्रूर नहीं थी ।
ब्रिटेन की क्रूरता और लोभ का एक लम्बा इतिहास रहा है और उपनिवेशों का बर्बर शोषण करने का उनका अपना देशी अनुभव , जो विदेशों में काम आया , खासतौर से 'इंडियन डाग्स' के लिए ।
इतने गम्भीर विषय पर लिखी इस पुस्तक की पठनीयता एकदम कथा जैसी है । वास्तव में आप सांस खींचे पूरी पुस्तक पढ़ कर ही छोड़ पाएंगे । मुझे नहीं पता कि इस पठनीयता के पीछे अनुवादक दिगंबर का कितना हाथ है ।
तीन सौ पृष्ठों की यह पुस्तक आश्चर्यजनक रूप से मात्र 180 रु में वितरक गार्गी प्रकाशन से प्राप्त की जा सकत है ।
- देवेंद्र आर्य
इंग्लैंड में मजदूर वर्ग की दशा-फ्रेडरिक एंगेल्स की पहली पुस्तक है। तब उनकी उम्र मात्र 24 वर्ष की थी। इस पुस्तक की रचना 1882 से 1844 के बीच हुई, जब एंगेल्स औद्योगिक क्रांति के केंद्र मैनचेस्टर में रहते थे। ग्रासरूट के स्तर पर कैसे सूक्ष्म निगाहों से काम किया जाता है, हमारे युवा रचनाकार इस बात की सीख ले सकते हैं। इस किताब का हिंदी अनुवाद दिगम्बर ने किया है और छापा है, "अंतरराष्ट्रीय प्रकाशन" ने। दोनों को साधुवाद। इस किताब के जरिए आप एक साथ कल-कारखानों की उत्पत्ति, मजदूर वर्ग की दशा-दुर्दशा और कृषक से मजदूर बनने की कहानी आपको एक साथ पढ़ने को मिलेंगे। आज प्रवासी मजदूरों पर बहुत सारी बातें हो रही हैं। उनके रहने, खाने - पीने, उनके बच्चों की शिक्षा एंव स्वास्थ्य संबंधी चर्चा भी हो रही है। लेकिन इस बात की चर्चा शायद ही हो रही है कि ये किसान आखिर गांव छोड़ने के लिए क्यों विवश हैं? मूल में तो कृषि-व्यवस्था का ध्वस्त होना, किसानों का अन्यत्र रोज़ी-रोटी के लिए पलायन और आर्थिक तंगी ही है? हमें तो यह दृश्य भी देखने पडे कि कैसे करोना की मार झेलते ये मजदूर गांव लौटे और पुनर्वापसी भी तत्काल शुरू हो गई। पुन: नरक वापसी। जगदीश चंद्र ने उपन्यास लिखा है न-धरती, धन, न अपना।
तो भाई जान। मजदूरों की स्थिति उनके जन्म से ही खराब रही है। आप इस किताब का अवलोकन अवश्य करें, यह मेरी आप से गुजारिश है। मैं अभी किताब के डिटेल्स में नहीं जाऊंगा। डिटेल्स आपको स्वयं प्राप्त करने होंगे, तभी आप इस किताब के साथ संगति बिठा सकते हैं। मैं तो बस उस असंगठित मजदूरों के संगठित होने के दिन - रात सपने देखा करता हूं। कोई तो सामने आए और इन कराहते हुए कामों को अंजाम दे?
--राणा प्रताप, संपादक-- कथान्तर
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