किताब ‘मजाज़ हूँ, सरफ़रोश हूँ मैं’ में आपको हर—दिल—अज़ीज़ शायर मजाज़ की मुकम्मल शख़्सियत के बारे में जानने और उनकी विचारधारा एवं शायरी का मज़ा एक साथ मिलेगा। मजाज़ की दिल-आवेज़ शख़्सियत और इंक़लाबी ख़यालात को उनके क़रीबियों और दोस्तों से बेहतर भला कौन जान सकता है। किताब में उनकी बहन हमीदा सालिम और उनके क़रीबी दोस्त जाँ निसार अख़्तर, अली सरदार जाफ़री, सज्जाद ज़हीर, जोश मलीहाबादी एवं इस्मत चुग़ताई के आलेख हैं, तो मजाज़ के कलाम का विश्लेषण भी है। और उनके कलाम का आलोचनात्मक मूल्यांकन फ़ैज़ अहमद फै़ज़, सज्जाद ज़हीर, आल-ए-अहमद सुरूर, फ़िराक़ गोरखपुरी और फ़िक्र तौंसवी ने किया है, जो आलोचक की नज़र भी रखते थे। यह सारे आलेख उर्दू ज़बान से हिन्दी में अनुवाद किए गए हैं।
‘मजाज़ हूँ, सरफ़रोश हूँ मैं’ में ‘ब-क़लम, ब-ज़बान मजाज़’ कॉलम के अंतर्गत मजाज़ की दो रचनाएँ हैं। पहला, एक छोटा—सा रेडियो फ़ीचर है, जो मजाज़ ने आकाशवाणी लखनऊ के ‘कलाम-ए-शायर ब-ज़बान-ए-शायर’ प्रोग्राम में 23 नवम्बर, 1948 को पढ़ा था। दूसरी रचना, मजाज़ का ऐतिहासिक बयान है। उन्होंने यह बयान दूसरी आलमी जंग के दरमियान दिया था। किताब के आख़िर में मजाज़ का चुनिंदा कलाम यानी उनकी नज़्में और ग़ज़लें शामिल हैं
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मुख़्तार ख़ान | |
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