प्रिंट स्टॉक में नहीं है
सवाल यह है कि क्या भारत सरकार डब्ल्यूटीओ में शामिल रहते हुए और उसके नियमों का उल्लंघन किये बिना अपने देश में वैधानिक रूप से न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारन्टी कर सकती है ? क्या अपने देश के खाद्य सुरक्षा कानून का पालन करते हुए अनाज का सरकारी भण्डारण और सस्ते गल्ले की दुकानों पर उसकी आपूर्ति कर सकती है ? अगर नहीं, तो क्या देश के 80 प्रतिशत छोटी जोत वाले किसानों की तबाही और बहुसंख्य गरीब जनता को भुखमरी और कुपोषण से बचाना सम्भव है ?
आज किसानों का मुकाबला उस वैश्विक पूँजी के साथ है जो 1990 के बाद, बदली हुई परिस्थितियों में दुनिया की सारी प्राकृतिक सम्पदा को, मानव श्रम और मानव संसाधन को अपने मुनाफे का जरिया बनाने पर आमादा है । पिछले तीस वर्षों के दौरान दुनियाभर में पूँजी का संकट दिनोंदिन लाइलाज होता जा रहा है, जिससे बचने के लिए पूँजीवादी दार्शनिक, योजनाकार, अर्थशास्त्री, नौकरशाह और नेता दिन रात हाथ–पाँव पटक रहे हैं । पूँजी के वैश्वीकरण और नवउदारवादी नीतियों का विनाशकारी ताण्डव जारी है, जिसने दुनिया की भारी आबादी का जीवन नरक से भी बदतर बना दिया है । भुखमरी, बेरोजगारी, महँगाई, बीमारी, अकाल मौत, अपराध, दंगे–फसाद, अलगाव, सामाजिक–सांस्कृतिक–नैतिक पतन, पर्यावरण की तबाही, आज अपने चरम पर है । इसके जवाब में आज पूरी दुनिया के मेहनतकशों के आन्दोलन भी नये रूपों में उठ खड़े हो रहे हैं ।
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